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________________ ९६ आप्तवाणी-२ लक्ष्मी तो उतनी ही आनेवाली है। भगवान ने कहा है कि लक्ष्मी धर्मध्यान से बढ़ती है और आर्तध्यान और रौद्रध्यान से लक्ष्मी घटती है। यह तो आर्तध्यान से और रौद्रध्यान से लक्ष्मी बढ़ाने के उपाय करते हैं। वह तो पहले का पुण्य जमा रहा हुआ होगा तभी मिलेगी। इन 'दादा' की 'कृपा' से तो सबकुछ आ मिलता है। कारण क्या है? उनकी कृपा से सारे अंतराय टूट जाते हैं। लक्ष्मी तो है ही, लेकिन आपके अंतराय से मिल नहीं रही थी। वे अंतराय 'हमारी' 'कृपा' से टूट जाते हैं और उसके बाद सबकुछ आ मिलता है। 'दादा' की 'कृपा' तो मन के रोगों के, वाणी के रोगों के और देह के रोगों के - उन सर्व प्रकार के दु:खों के अंतरायों को तोड़नेवाली है। यहाँ पर जगत् के समस्त दुःख चले जाते हैं। किसी की दो मिलें, लेकिन बेटा शराबी हो तो वह बाप को रोज़ मारता है, गालियाँ देता है। तो वह कहा भी नहीं जाता और सहा भी नहीं जाता। ऐसे सब दुःख हैं। यह संसार तो निरा दुःखों का ही साम्राज्य है। बड़े-बड़े चक्रवर्ती राजा भी राजपाट छोड़कर भाग निकले। और इससे झोंपड़ी नहीं छूटती। ऐसी क्या ममता है कि छूटता नहीं? आधि, व्याधि और उपाधि के ताप में इंसान शक्करकंद की तरह चारों ओर से भुन रहा है। दो मिलोंवाला, संसारी, त्यागी, दो पत्नियोंवाला और सन्यासी - सभी भुन रहे हैं। उसमें 'यही' एक शीतल छाया खड़ी हुई है, नहीं तो किस तरह जीना वह भी भारी हो जाए, ऐसा है। यही एक समाधि का स्थान खड़ा हुआ है ! प्रश्नकर्ता : आजकल पैसे की प्रधानता है, ऐसा क्यों? दादाश्री : जब इंसान को किसी तरह की सूझ नहीं पड़ती है, तब मान बैठता है कि पैसों से सुख मिलेगा। ऐसा दृढ़ हो जाता है, इसलिए मानता है कि पैसों से विषय मिलेंगे। बाकी का सबकुछ भी मिलेगा। लेकिन उसकी भी गलती नहीं है। यह (उसने) पहले से ही ऐसे कर्म किए हुए हैं, उनके ये फल आते रहते हैं। इस पूरे मुंबई में दसेक लोग ही पुण्यानुबंधी पुण्यवाले लक्ष्मीवान होंगे, और बाकी के पापानुबंधी पुण्यवाले लक्ष्मीवान हैं और वे निरंतर अपार चिंता में रहा करते हैं। हम भी व्यापारी इंसान हैं। इसलिए संसार में व्यापार-रोज़गार और
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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