SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आप्तवाणी-२ करवाए ऐसी है। इससे तो कम आए तो अच्छा, घर में क्लेश तो नहीं घुसे ! आज जहाँ-जहाँ लक्ष्मी आती है, वहाँ क्लेश का वातावरण हो जाता है । एक रोटी और सब्ज़ी अच्छी, लेकिन बत्तीस प्रकार के पकवान काम के नहीं हैं। क्योंकि वे पकवान खाने के बाद क्लेश हो, तो किस काम का! इस काल की तो लक्ष्मी आती है और क्लेश लाती है । पापानुबंधी पुण्य की लक्ष्मी दुःख देकर जाती है, नहीं तो एक ही रुपया, ओहोहो ! कितना सुख देकर जाए ! पुण्यानुबंधी पुण्य तो घर में सभी को सुख-शांति देकर जाता है, घर के सभी लोगों को सिर्फ धर्म के ही विचार रहते हैं । ९० लक्ष्मी तो कैसी है? कमाते हुए भी दु:ख, सँभालते हुए दु:ख, रक्षण करते हुए दुःख और खर्च करते हुए भी दुःख । घर पर लाख रुपये आएँ, तब उन्हें सँभालने की परेशानी हो जाती है। कौन से बैंक में इसकी सेफसाइड है, वह ढूँढना पड़ता है और फिर रिश्तेदारों को पता चले कि तुरंत ही दौड़े आते हैं। सभी मित्र दौड़े आते हैं। कहते हैं, 'अरे यार, मुझ पर इतना भी विश्वास नहीं? सिर्फ दस हज़ार रुपये चाहिए ।' मजबूरन फिर वे देने पड़ते हैं। यह तो पैसे अधिक हों तो भी दुःख और कम हों तो भी दुःख । यह तो नॉर्मल हो वही अच्छा, नहीं तो फिर लक्ष्मी खर्च करते हुए भी दुःख होता है। यह ज़रा किसीने नयी साड़ी ली हो, तो तुरंत कहती है, ‘ऐसी साड़ी मैंने भी ली होती तो?' ऐसे विचारों से दुःख हो जाता है । उसी प्रकार यह लक्ष्मी तो आए और जाए तब तक दुःख दे ऐसा है । यह तो कहते हैं कि, 'ये चालीस हज़ार बैंक में है, वे कभी भी नहीं निकालने हैं।' फिर वह ऐसा समझता है कि यह क्रेडिट ही रहेगा । ना, उसमें तो डेबिट का खाता होता ही है। वह जाने के लिए ही आती है । इस नदी में भी यदि पानी उफनने लगे तो वे सभी को छूट दे देते हैं कि 'जाओ, काम में लो।' जबकि इनके पास आए तो वे रोककर रखते हैं । नदी को यदि चेतना आ जाती न तो वह भी सँभालकर रखती ! यह तो जितना आए उतना खर्च कर देना चाहिए, उसमें रोकने का क्या है ? खाना-पीना और खिला देना । यह तो पूरण-गलन स्वभाव का है । जितना पूरण (चार्ज होना, भरना) हुआ, उतना
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy