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________________ (312) साफल्य देखता है। सह अस्तित्व का मूल्यांकन कराने में जैन साधुओं का बहुत बड़ा हाथ है। अहिंसा, सत्य, प्रेम, सहनशीलता आदि महान् गुणों के विकास में साधु समाज महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहा है। विशाल दृष्टिकोण लेकर साधुओं ने सद्गुणों के प्रसार के लिएप्रचार किए हैं, और उनको सफलता भी प्राप्त हुई है। अनेकानेक साधुओं ने जैन और जैनेतर समाज में अपना सम्माननीय स्थान बना लिया है। लोग बिना जातीय भावना से उनका उपदेश श्रवण कर अपना जीवन नैतिक बनाने का प्रयास करते हैं। यहाँ एक प्रश्न विचारणीय है कि "जैन साधु अहिंसा महाव्रती होता है। उनका उपदेश भी अहिंसा के प्रचार व प्रसार के लिए होता है। यदि देश के संकट के समय अहिंसात्मक उपदेश दे तो देश निर्बल हो जावेगा। और न ही साधु शत्रु का सामना करने के लिए हिंसात्मक कदम उठाने को कहेगा, ऐसी संकटकालीन परिस्थिति में उनका उपदेश कामयाब नहीं हो सकेगा।" वास्तव में साधु के लिए शत्रु और मित्र दोनों समान है। वह न किसी पर राग करता है, और न किसी पर द्वेष। तो शत्रु का मुकाबला करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता? ऐसे ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं, जहाँ साधु के आत्मबल के सामने शत्रु भी नतमस्तक हुए है। श्रमण परम्परा में दो पक्ष हैं-श्रावक और श्रमण। श्रावक अहिंसाणुव्रती होता है। वह संकल्पी हिंसा का त्यागी होता है, विरोधी हिंसा का नहीं। इससे स्पष्ट है कि श्रावक के कर्तव्यों के विवेचन के समय साधु इस तथ्य को विस्मरण तो नहीं करेगा। जैन साधु समता के सिद्धान्त का प्रचार ही नहीं करता वरन् यह भी उपदेश देता है कि सबकी आत्मा एक समान है। सब प्राणियों के शरीर में अन्तर हो सकता है, किन्तु आत्मा सबकी समान है। वनस्पति से लेकर मनुष्य तक जितने भी प्राणवान् जीव हैं, सभी में समान आत्मा है। इस प्रकार साम्यदर्शन को जानकर व्यक्ति सभी पर समभाव रखकर मित्रता स्थापित करता है। ऊँच-नीच, हीनतातिरस्कार के भाव हृदय में से पलायन कर जाते हैं। अतः प्राणिमात्र के प्रति और सौहार्द्र का सूचन करता है। जो कि विश्वमैत्री की बंसी बजाकर प्रेम-स्नेह की सरिता को बहाता है। फलतः क्लेश-वैमनस्यभाव का जहर उसके हृदय में से निकल जाता है, स्नेहामृत का प्रसाद जन-जन में वितरित करता है। घोर हिंसा के प्रतीक कत्लखाने बूचड़खाने आदि बन्द कराने का अधिकांश
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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