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________________ (244) इस प्रकार जिसके द्वारा पर-परिणति (बाह्य मुखता) से आत्म-परिणति (अन्तर्मुखता) की ओर जाया जाता है,वही सामायिक है। ___ इस समत्व की साधना की चर्चा दोनों परंपराओं में आलेखित है। बौद्ध दर्शन में भी यह समत्व वृत्ति स्वीकृत है। धम्मपद में कहा गया है कि सब पापों को नहीं करना और चित्त को समत्ववृत्ति में स्थापित करना ही बुद्ध का उपदेश है। गीता के अनुसार सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि , सुख-दुःख, लोहकंचन, प्रिय-अप्रिय और निंदा-स्तुति, मान-अपमान, शत्रु-मित्र में समभाव और सावद्य (आरम्भ) का परित्याग ही नैतिक जीवन का लक्षण है। श्रीकृष्ण अर्जुन को यही उपदेश देते हैं कि हे अर्जुन, तू अनुकूल और प्रतिकूल सभी स्थितियों में समभाव धारण कर। साधक चाहे वह गृहस्थ हो या साधु समत्व की साधना करके ही आत्मकल्याण कर सकता है। व्यावहारिक पक्ष हो या नैश्चियिक जीवन तथा आत्मा में गुणों का आधान समता के द्वारा होता है। गृहस्थ साधक के लिए व्यवहार से सामायिक व्रत दो घडी (48 मिनिट) के लिए होती है निश्चय में समत्व वृत्ति या समता भाव ही सामायिक है। निषेधात्मक रूप में वह सावधयोग (पापकारी कार्यों) से विरति है तो विधिरूप से वह समत्व की साधना है-मन, वचन और काया से। चतुर्विंशतिस्तव (उत्कीर्तन) जैन परंपरा में भक्ति का महत्त्व रहा है, किन्तु उसका संबंध सर्व शक्तिसंपन्न सत्ता से नहीं। चतुर्विंशतिस्तव भक्ति साहित्य की एक विशिष्ट रचना है। उसमें किसी शक्ति को प्रसन्न करने व उससे कुछ पाने के लिए भक्ति नहीं की जाती, किन्तु उसका प्रयोजन वीतरागता के प्रति होता है। कालचक्र के वर्तमान खण्ड में चौबीस तीर्थंकर हुए। वे सब स्वयं वीतराग और वीतराग-धर्म के प्रवर्तक थे। इसलिए उनकी स्तुति आवश्यक में सम्मिलित की गई। इससे जीव दर्शन की विशुद्धि करता है। 1. गोम्मटसार, जीवकाण्ड (टीका) 368.' 2. धम्मपद 183 3. गीता 6.32 4. वही 14.24.25 5. गीता 2.49 6. उत्तरा 29.9
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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