SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (228) दोनों प्रकार की हिंसा से विरत होता है। माहन' को यहाँ सव्व पापस्थानों से विरत बताया गया है। इसका अर्थ यह है कि वह भावहिंसा के इन मूलकारणों से विरत रहता है। वह समिति एवं त्रिगुप्ति से युक्त है अर्थात् वह असत्य, चोरी आदि भावहिंसाओं से रक्षा करने वाली समिति-गुप्ति से युक्त है। वह सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयसम्पन्न माहन हिंसा निवारण के अमोघ उपायभूत मार्ग से सुशोभित है। हिंसा से सर्वथा निवृत्त माहन षड्जीवनिकाय की रक्षा के लिए सदैव यत्नवान् होता ही है। क्रोध और अभिमान-ये दो भावहिंसा के प्रधान जनक है। माहन भावहिंसाजनक कषायों से दूर रहता है। इस प्रकार माहन के अर्थ को प्रकट करता यह सूत्र अत्यन्त्र सुसंगत है। श्रमण पूर्वोक्त विरति आदि गुणों से सम्पन्न जो साधक अनिश्चित (शरीर आदि किसी भी पर-पदार्थ में आसक्त या आश्रित नहीं) है, अनिदान (अपने तप-संयम के फल के रूप में किसी भी प्रकार के इह-पारलौकिक सुख-भोगाकांक्षा से रहित) है, तथा कर्मबन्ध के कारणभूत, प्राणातिपात, मृषावाद, मैथुन और परिग्रह (उपलक्षण से अदत्तादान) से रहित है तथा क्रोध, मान, माया, लोभ, राग और द्वेष नहीं करता। इस प्रकार जिनजिन कर्मबन्ध के आदान-कारणों से इहलोकपरलोक में आत्मा की हानि होती है, तथा जो जो आत्मा के लिए द्वेष के कारण हो, उन-उन कर्मबंध के कारणों से पहले से ही निवृत्त वह दांत, भव्य (द्रव्य) तथा शरीर के प्रति ममत्व से रहित है, उसे श्रमण कहना चाहिये। प्रस्तुत सूत्रगाथा में यह बताया गया है कि 'किन विशिष्ट गुणों से सम्पन्न होने पर साधक को श्रमण कहा जा सकता है।' प्राकृत भाषा में 'समण' शब्द के संस्कृत में तीन रूपान्तर होते हैं-श्रमण, शमन और समन। श्रमण का अर्थ है-जो मोक्ष (कर्ममोक्ष) के लिए स्वयं श्रम करता है, तपस्या करता है। शमन का अर्थ है-जो कषायों का उपशमन करता है, और समन का अर्थ है-जो प्राणिमात्र पर समभाव रखता है, अथवा शत्रु-मित्र पर जिसका मन सम-रोग-द्वेष रहित है। इन अर्थों के प्रकाश में जब हम प्रस्तुत सूत्रोक्तं श्रमण के लक्षण को कसते हैं, तो वह पूर्णतः खरा उतरता है। यहाँ श्रमण का पहला लक्षण 'अनिश्चित' बताया है, वह इसलिए कि श्रमण किसी देव आदि 1. वही. 16. अध्य 635
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy