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________________ 35 अरहन्त परमेष्ठी अन्तिम मंजिल भी है / यही साध्य है, धर्म का आदि तथा अन्त भी यही है। उपर्युक्त प्रक्रिया के अनुसार सत्त्व तीसरे गुणस्थान से उठता हुआ तेरहवें गुणस्थान में पहुंच कर चार घातिया कर्मो का विनाश करके अरहन्त पद को प्राप्त करता है तथा वही चौदहवें गुणस्थान में पहुच कर सम्पूर्ण कर्मों से मुक्त होने पर सिद्ध कहलाता है। (ग) कर्म तथा उसके भेद : __ शुभ एवं अशुभ प्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ट एवं सम्बद्ध होकर जो पुद्गल' आत्मा के स्वरूप को आवृत्त करते हैं, विकृत करते हैं और शुभाशुभ फल के कारण बनते हैं, उन आत्मगृहीत पुद्गलों का नाम ही 'कर्म' हैं। कर्म जब आत्मा के साथ बन्धको प्राप्त होते हैं तो वे मुख्य रूप से आठ रूपों में परिवर्तित हो जाते हैं। ये कर्मों की आठ अवस्थाएं ही कर्मो के प्रमुख आठ भेद गिनाए गए हैं वे हैं (1) ज्ञानावरणीय,(२)दशनावरणीय, (3) वेदनीय, (4) मोहनीय, (5) आयु, (6) नाम, (7) गोत्र और (E) अन्तराय कर्म / इन आठ भेदों को मूल कर्मप्रकृति तथा इनके अवान्तर भेदों को उत्तर कर्मप्रकृति कहा जाता है। यहां प्रकृति से अभिप्राय है-वस्तु का स्वभाव / इन आठ प्रकार के कर्मो को दो भागों में बांटा गया है-(१) घातिया कर्म और (2) अघातिया कर्म। (अ) घातिया कर्मः __ जो कर्म पुद्गल आत्मा से चिपक कर आत्मा के मुख्य या स्वाभाविक गुणों का घात (विनाश) करते हैं, उनका हनन करते हैं, वे घातिया कर्म कहलाते हैं। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय-ये चार घातिया कर्म हैं। इन कर्मों का समूल विनाश होने पर ही आत्मा स्वस्वरूप में प्रगट हो जाती है। आत्मा का यही प्रगटपना सर्वज्ञत्वमय होता है। 1. जिनमें पूरण-नये परमाणुओं का संयोग और गलन-संयुक्त परमाणुओं का वियोग ___होता है उनहें पुद्गल कहा जाता है। त०सा० 3.55 2. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्लानादत्ते / स बन्धः / त०सू० 8.2-3 3. नाणस्सावरणिज्जं दंसणावरणं तहा। वेयणिज्जंतहा मोहं आउकम्मं तहेव य।। नामकम्मं च गोयं च अन्तरायं तहेव य। एवमेयाइ कम्माइं अट्ठेव उ समासओ।। उ० 33.2-3 4. एयाओ मूलपयडीओ उत्तराओ य आहिया / वही,३३.१६
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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