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________________ 26 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी पांचों कल्याणकों में देवों द्वारा की गई पूजाएं, देव, असुर व मनुष्यों की प्राप्त पूजाओं से अधिक हैं, अतः इन अतिशयों के जो योग्य हैं-वे ही अरहन्त हैं।'' (2) अरह, अरहा एवं अरहो: अरह कहें या अरहा अथवा अरहो-ये तीनों ही प्राकृत शब्द हैं तथा अरहन्त के समानार्थक हैं | उतराध्ययनसूत्र में 'अरह' को अनुत्तरज्ञानी, अनुत्तरदर्शी और अनुत्तरज्ञानदर्शनधारी बतलाया गया है। (3) अरिहन्त वा अरिहो: अरिहन्त तथा अरिहो--ये दोनों शब्द भी एक ही अर्थ के द्योतक हैं। यहां पर 'अरि' का अर्थ 'शत्रु' से लिया गया है। प्रश्न होता है कि ये शत्रु कौन हैं? आगम ग्रन्थों में यह स्पष्ट निर्देश मिलता है कि भगवान् के तीर्थंकरत्व की उपलब्धि के विनाशक जो तत्त्व हैं, जिन्हें कर्म भी कहा गया है, वे ही उसके घातक शत्रु हैं। ऐसे उन कर्मरूपी घातक अरिओं का विनाश करने वाला व्यक्ति विशेष अरिहन्त कहलाता है'। आवश्यक नियुक्ति में भी उपर्युक्त कथन का समर्थन करते हुए बतलाया गया है कि 'पांचों इन्द्रियों के विषय, तथा क्रोध, मान, माया और लोभ---ये चार कषाय,क्षुधा-पिपासाआदिबाईसप्रकार के परीषह,शारीरिक और मानसिक रूप दोनों वेदनाएं एवं उपसर्ग-ये सब जीवन के शत्रु हैं। इन्हीं शत्रुओं के जो विनाशक हैं, वे अरिहन्त कहे जाते हैं। घवलाटीका में इस विषय पर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया है। यहां कहा गया है कि 'अरि अर्थात् शत्रुओं का विनाश करने से अरिहन्त संज्ञा प्राप्त होती है। यहां मोह को 'अरि' कहा गया है। मोह के अभाव में अवशेष कर्म अपना कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं / अथवा रज-आवरण कर्मों के नष्ट हो जाने से सत्त्व अरिहन्त बन जाता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहनीय यें तीन कर्म यहां रज कहलाते हैं क्योंकि ये वस्तुओं को विषय करने वाले बोध और अनुभव के प्रतिबन्धक 1. अतिशयपूजार्हत्वाद्वार्हन्तः / स्वर्गावतरणजन्माभिषेकपरिनिष्कमण केवलज्ञानोत्पतिपरिनिर्वाणेषु देवकृतानां पूजानां देवासुरमानवप्राप्तपूजाभ्यो ऽधिकत्वादतिशयानामर्हत्वाद्योग्यत्वादर्हन्तः / / धवला टीका, प्रथम पुस्तक. पृ.४५ 2. अणुत्तरनाणी अणुत्तरदसी अणुत्तरनाणदंसणधरे अरहा- / उ. 6.18 3. अट्ठविहंपि य कम्मं अरिभूयं होइ सयलजीवाणं। तं कममरिं हन्ता, अरिहंता तेण वुच्चंति / / भग. वृ.प.३ 4. इन्दियविसयकसाये परीसहे वेयणा उवसग्गे। ए ए अरिणो हन्ता अरिहंता तेण वुच्चंति।। आ.नि.गा. 616
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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