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________________ 12 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी पहले सिद्धों को ही नमस्कार किया जाना चाहिए ।अभिप्राय यह है कि पूर्वानुक्रम में 'णमो सिद्धाणं, णमो अरहन्ताणं' ऐसा होना चाहिए / यही क्रम यदि पश्चानुपूर्वी रूप में स्वीकार किया जाए तब वह नमस्कार-मन्त्र ‘णमो लोए सव्यसाहूणं' से आरम्भ होना चाहिए और उसके अन्त में 'णमो सिद्धाणं' पद आना चाहिए किन्तु यहां ये दोनों ही क्रम समुचित नहीं हैं / आचार्य भद्रबाहु इसका सम्यग् समाधान करते हुए कहते हैं कि नमस्कार-महामन्त्र का जो पद-क्रम आज प्राप्त है वह पूर्वानुपूर्वी ही है / इसमें क्रम का अतिक्रमण नहीं किया गया है / अपने मत की पुष्टि के लिए उन्होंने यह तर्क दिया है कि जो सिद्ध भगवान् हैं वे अरहन्त के उपेदश द्वारा ही जाने जाते हैं / अतः वे अरहन्त ही उनके ज्ञापक हैं |इस दृष्टि से अरहन्त ही हमारे अधिक निकट होने से अधिक पूजनीय हैं ।अतः नमस्कार-महामन्त्र में अरहन्तों को प्रथम स्थान दिया गया है / 2 आत्मविकास की दृष्टि से भी यदि देखा जाए तो अरहन्त और सिद्ध में कोई अन्तर ही प्रतीत नहीं होता / इनके आत्मविकास में यदि कोई बाधक है तो वे हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और मोहनीय ये चार घातिया कर्म, जिनके विशेष क्षय होने पर आत्मा पूर्णरूप से स्वस्वरूप में परिणत हो जाता है / विकास का अंशमात्र भी कम नहीं रह जाता / वह केवलज्ञान प्रभास्वर होता हैं / एकमात्र भवोपग्राही कर्म के शेष रहने से अरहन्त शरीर को धारण किए रहते हैं और संसारियों को भवचक्र से छूटने का सदुपदेश देते हैं। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि सिद्ध अरहन्त से श्रेष्ठ है। यहां निश्चय दृष्टि से तो छोटे-बड़े का कोई प्रश्न नहीं उठता / यह प्रश्न केवल व्यावहारिक है / व्यवहार दृष्टि से अरहन्त सर्वोच्च हैं। इसी से उन्हें प्रथम स्थान पर रखना समुचित है। अरहन्त तीर्थंकर ही धर्म के आदिकर होते हैं। वे ही समस्त प्रजा को मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करते हैं. प्राणीमात्र को उसे पाने की प्रेरणा वे ही देते है। वे हीधर्म का स्रोत हैं |धर्म में निष्णात होकर वे ही सिद्ध हो जाते है | इस तरह व्यवहार के धरातल पर जितना महत्त्व अरहन्त का है, उतना सिद्ध का नहीं / सिद्ध के ज्ञापक अरहन्त : अरहन्त सिद्ध के ज्ञापक हैं, इसलिए उन्हें प्रथम स्थान दिया गया है। कोई यहां प्रश्न कर सकता है कि फिर तो आचार्य अरहन्त के भी ज्ञापक होते हैं / अतः नमस्कार-मन्त्र में 'णमो आयरियाणं' यह पद सबस पहले हो ना 1. पुव्वाणुपुब्वि न कर्मोनिव य पच्छाणुपुव्वि एस भवे / सिद्धाइया पढमा बीआए साहुणो आई / / आ० नि०, गा० 1021 अरिहंतुवएसेणं सिद्धा नजंति तेण अरिहाई / / वही, गा० 1022
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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