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________________ 11 विषय-प्रवेश ही करते हैं / इस दृष्टि से वे परम पूजनीय बन जाते हैं / अत एव ये दोनों भी परमेष्ठी मान लिये गये / इस तरह अरहन्त, सिद्ध, आचार्य एवं उपाध्याय ये चार परमेष्ठी हुए। परमेष्ठी का स्वरूप साधुत्व : ठीक है अरहन्त और सिद्ध के इलावा आचार्य और उपाध्याय भी परम पूज्य, आदरणीय और अर्चनीय हैं किन्तु चित्त में पुनः यह प्रश्न खटकता है कि साधु को उक्त पञ्च परमेष्ठियों में स्थान क्यों दिया गया ? साधु तो साधु हैं, वे आचार्य, उपाध्याय की तरह पूज्य कैसे हो सकते हैं? जैन आचार्य इसका भी समाधान करते हुए कहते हैं कि चाहे अरहन्त हो अथवा आचार्य अथवा उपाध्याय / ये सब पहले साधु हैं और बाद में अन्य कुछ / वास्तव में साधु ही परमेष्ठी का स्वरूप है / श्रीमद्भगवद्गीता की टीका में एक श्लोक आता है जिसमें कहा गया है कि सारा संसार स्त्री और काञ्चन के चक्कर में घूम रहा है, जो सत्त्व इनसे विरक्त रहता है, वही दूसरा परमेश्वर है-- कान्ता-काञ्चन-चक्रेषु भ्राम्यति भुवनत्रयम् / तासु तेषु विरक्तो यः द्वितीयः परमेश्वरः / / ' उपर्युक्त कथनानुसार साधु ही अरहन्त बनने के लिए साधनारत होता है। योग-साधना के चरमोत्कर्ष पर पहुंच जाने पर ही वह योगावचर परमेष्ठी अथवा परमात्मा बन जाता है / इस तरह यदि हम देखें तो सिद्ध और साधु इन दो पदों में ही पांचों पद समाविष्ट हो जाते हैं, फिर भी पांचों ही पदअपने-अपने में स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं / इसलिए जैनधर्म में नमस्कार-महामन्त्र पंच-परमेष्ठी के रूप में ही स्वीकार किया गया है / अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पांचों ही समानरूप से अर्चनीय, पूजनीय एवं सम्माननीय हैं। पञ्चपरमेष्ठियों का पौर्वापर्यत्व विचार : परमेष्ठी पांच हैं ।इनका क्रम ऐसा ही है अथवा इसमें अन्य कोई विशेष कारण है ?निःसन्देह नमस्कार-महामन्त्र में जिन पांच महापुरुषों को नमस्कार किया गया है | उसमें उक्त क्रम ठीक नहीं है, जैसे कि पहले भी कहा गया है कि सिद्ध अरहन्तों को भी पूज्य होते हैं, वे सिद्धों से ऊपर नहीं। साधना में अरहन्त सिद्धों को ही अपना आराध्य मानते हैं / इसी के बल पर ही वेअरहन्तत्व को भी पाते हैं और फिर वे ही सिद्ध बन जाते हैं / अतः नमस्कार-महामन्त्र में 1. विस्तार के लिए दे०-तीर्थंकर (विचार मासिक), आचार्य तुलसी का लेख 'परमेष्ठी वन्दन', पृ० 37.
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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