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________________ 245 साधु परमेष्ठी (4) स्वर्ण : जैसे निर्मल स्वर्ण प्रशस्त रूपवान् होता है, उसी प्रकार साधु भी रागादि का नाश कर प्रशस्त आत्मस्वरूप वाला होता है। (5) कमलपत्र : कमलपत्र जैसे जल से निर्लिप्त रहता है, उसी प्रकार साधु अनुकूल . विषयों में आसक्त न होता हुआ उनसे निर्लिप्त रहता है। (6) चन्द्र : चन्द्रमा जैसे सौम्य होता है, उसी प्रकार साधु स्वभाव से सौम्य होता है। (7) सूर्य : जिस प्रकार सूर्य तेज से दीप्त होता है, उसी प्रकार साधु भीतप के तेज से दीप्त रहता है। (8) सुमेरु जैसे सुमेरु पर्वत स्थिर है, प्रलयकाल में भी विचलित नहीं होता, उसी प्रकार साधु संयम में स्थिर रहता हुआ परीषहों से विचलित नहीं होता। (7) सागर : जिस प्रकार सागर गम्भीर होता है, उसी प्रकार साधु भी गमभीर होता है, हर्ष अथवा शोक के कारण उसका चित्त विकृत नहीं होता। (10) पृथ्वी : ' जैसे पृथ्वी सभी प्रकार की बाधाएं-पीड़ाएं सहन करती है, उसी प्रकार साधु भी सभी प्रकार के उपसर्ग तथा परीषह सहन करता है। (11) भस्माच्छन्न अग्नि : राख से ढकी हुई अग्नि जिस प्रकार बाहर से मलिन दिखाई देती हुई भी अन्दर से प्रदीप्त रहती है, उसी प्रकार तप से कृश होने से साधु बाहर से म्लान दिखाई देता है, किन्तु अन्दर से शुभ भावना के द्वारा प्रकाशमान रहता है। (92) धृतसिक्त अग्नि : जैसे घी से सींची हुई अग्नि तेज से देदीप्यमान होती है, उसी प्रकार साधु ज्ञान एवं तप के तेज से दीप्त रहता है। (13) गोशीर्ष चन्दन : जिस प्रकार गोशीर्ष चन्दन शीतल और सुगन्धित होता है, उसी प्रकार साधु भी कषायों के उपशान्त होने से शीतल एवं शील की सुगन्ध से सुवासित होता है।
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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