SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 244 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी एक के भी रहने पर सल्लेखना के फल की प्राप्ति नहीं हो सकती। अतः साधक को सल्लेखना के पांच अतिचारों और इन पांच प्रकार की अशुभ भावनाओं से सदैव दूर रहना चाहिए, तभी वह सल्लेखना के अभीष्ट फल को प्राप्त कर सकेगा। 6- सल्लेखना का फल : सल्लेखना धारण करना साधना पथ का चरम केन्द्रबिन्दु है। यदि साधक इसमें सफल हो जाता है तो वह अपनी सम्पूर्ण साधना का अभीष्ट फल प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार धर्म का पान करने वाला कोई क्षपक सब दुःखों से अछूता रहता हुआ अन्तरहित तथा सुख के समुद्र स्वरूप मोक्ष का अनुभव करता है और कोई क्षपक बहुत समय में समाप्त होने वाली 'अहमिन्द्र आदि की सुखपरम्परा का अनुभव करता है। इस प्रकार यह साधु के विशेष आचार का अध्ययन किया गया। (छ) साधु की 31 उपमाएं : साधु को निम्नलिखित 31 उपमाओं से उपमित किया गया है(१) कांस्यपात्र : जैसे उत्तम एवं स्वच्छ कांस्यपात्र जलमुक्त रहता है अर्थात् उस पर पानी नहीं ठहरता, उसी प्रकार साधु भी स्नेह-बन्धन से मुक्त रहता है। (2) शंख: जैसे शंख पर रंग नहीं चढ़ता उसी प्रकार साधु राग-भाव से रंजित नहीं होता। (3) कच्छप: जिस प्रकार कछुआ चार पैर और एक गर्दन-इन पांच अवयवों को सिकोड़कर खोपड़ी में सुरक्षित रखता है, उसी प्रकार मुनि भी संयम क्षेत्र में अपनी पांचों इन्द्रियों को गुप्त रखता है, उन्हें विषयोन्मुख नहीं होने देता। 1. 'अहमिन्द्र' आदि का पद रोग, शोक आदि से रहित होता है, अतः सांसारिक सुख का उत्कृष्ट स्थान है। यह पद दुस्तर है अर्थात् सागरों पर्यन्त विशालकाल से उसका अन्त प्राप्त होता है। दे०- रत्नक० 5.6 टीका 2. निःश्रेयसमम्युदयं निस्तीरं दुस्तरं सुखाम्बुनिधिम्। निःपिबति पीतधर्मा सवैर्दुःखैरनालीढः।। वही, 5.6 कंसपाईव मुक्कतोया, संखो इव निरंगणा, जीवो विवअप्पडिहयगई, जच्चकणगं पिव जायरूवा, आदरिसफलगाइवपागड़मावा, कुम्मो इवगुतिंदिया, पुक्खरपत्तं वनिरुलेवा, गगणमिवनिरालंवणा, अणिलो इव निरालया, चंदो इव सोमलेसा, सूरो इव वित्ततेया, सागरो इव गंम्भीरा, विहग इव सव्वओ विप्पमुक्का, मंदरो इव अप्पकंपा, सारयसलिलं व सुद्धीहयया, खग्गविसाणं व एगजाया, भारुडपक्खी व अप्पमत्ता, कुंजरो इव सोडीरा, वसभो इव जायत्थामा, सीहो इव दुद्धरिसा, वसुधरा इव सव्वफासविसहा, सुहुयहुयासणो इव तेयसा जलंता।। ओवाइयं. 27
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy