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________________ साधु परमेष्ठी 205 विषयों के प्रति साधु को आसक्त नहीं होने देते हैं। 11-14 चतुर्विध कषाय विवेक' : . साधु क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार प्रकार के कषायों के विषय में विवेक रखते हैं, उनके वशीभूत नहीं होते। चतुर्विध कषाय के विषय में भी पूर्व में विस्तार से वर्णन किया जा चुका है। 15- भावसत्य: अन्तःकरण के आस्रवों को हटाकर ध्यान के द्वारा भावों को निर्मल करके आत्मा काशुद्ध भावों से अनुप्रेक्षण करना,भावसत्य कहलाता है। इससे भावों में सत्य की स्फुरणा उत्पन्न होती है। 16- करणसत्य : साधु-साध्वी के लिए जिस समय जिस-जिस क्रिया को करने का शास्त्र में विधान है, उस क्रिया को उसी समय शुद्ध रूप से शुद्ध अन्तःकरण से मनोयोगपूर्वक करना, करण सत्य है / उपाध्याय के गुणों के प्रसंग में करण के सत्तर प्रकार बतलाए गए है। 17- योगसत्य: मन, वचन और कायरूप तीन योगों की अशुभ प्रवृत्ति को रोककर शुभ प्रवृति करना, योग सत्य है। 18- क्षमा : सहनशील रहना, अर्थात् क्रोध पैदा न होने देना और कभी क्रोध आ भी जाए तो उसे विवेक तथा नम्रता से निष्फल कर डालना, क्षमा है। 19- वैराग्य: सांसारिक पदार्थों की नश्वरता को जानकर उनसे रागद्वेष को समाप्त करना, विषयों से विरक्त होना ही वैराग्य है। 20-मनःसमाहरण : ___ सम+आहरण ।सम का अर्थ समता, समान भाव और आहरण का अर्थ है- ग्रहण करना। इस प्रकार मन में समताभाव रखना, मन को आगमोक्त भावों के चिन्तन में भली-भांति लगाए रखना ही मनःसमाहरण है। मन के समाहरण से जीव एकाग्रता को प्राप्त होता है जिससे साधु विविध तत्त्वबोध रूप ज्ञान को प्राप्त कर मिथ्यादर्शन की निर्जरा करता है। 1. वही, पृ० 142- 145 2. दे०-उ० 26.57
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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