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________________ 204 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी को पढ़कर उसे दीक्षित किया जाता है। दीक्षा स्वीकार कर लेने के पश्चात् वह साधक गुरु के द्वारा स्वयं मुण्डित किया जाता है / इसके बाद 'नमोत्थुणं पाठ को दो बार पढ़वा कर दीक्षार्थी को आचार आदि अंगों वाले धर्म का उपदेश दिया जाता है। (ङ) साधु के सत्ताईस गुण : साधुधर्म की पूर्वोक्त योग्यताओं और विशेषताओं को देखते हुए यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि वेष, जाति, वय और शरीरआदिमात्र से कोई भी व्यक्ति साधु नहीं कहला सकता, साधु की पहचान गुणों से ही हो सकती है तथा गुणों के धारण करने से ही साधुजन विश्व के प्राणियों का उद्धार कर सकते हैं / अतः तीर्थंकर भगवान् ने साधु के सत्ताईस गुण बतलाए हैं जो उसमें होने आवश्यक हैं1-5 पंच महाव्रत पालन : साधु पंच महाव्रतों की पच्चीसभावनाओं सहित उनका पूर्णतया पालन करते हैं। 6-10 पञ्चेन्द्रिय निग्रह : साधु श्रोत्रइत्यादि पांचों इन्द्रियों का निग्रह करते हैं-उनके अपने-अपने 1. नमोत्थुणं अरहंताणं भगवंताणं आइगराणं तित्थयराणं सहसं बुद्धाणं पुरिसोत्तमाणं पुरिससीहाणं पुरिसवरपुंडरीयाणं पुरिसवरगंधहत्थीणं लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहियाणं लोगपईवाणं लोगपज्जोयगराणं अभयदयाणं चक्खुदयाणं मग्गदयाणं सरणदयाणं जीवदयाणं बोहिदयाणंधम्मदयाणंधम्मदेसयाणंधम्मनायगाण धम्मसारहीणं धम्मवरचाउरंत चक्कवट्टीण दीवो ताणं सरण गई पइट्ठाअप्पडि-हयवरनाणदंसणधराणं विअट्टछउमाणं जिणाणं जावयाणं तिण्णाणं तारयाणं बुद्धाणं बोहयाणं मुत्ताणं मोयगाणं सव्वणूणंसव्वदरिसीणं सिवमयलामरूयमणंतमक्खयमव्वाबाह मपुणरावत्तयं सिद्धिगइनामधेय ठाणं संपत्ताणं नमो जिणाण जियभयाणं / आवस्सयं, 6.11 2. विस्तृत अध्ययन के लिए दे०-ज्ञाता, मेघ कुमार के दीक्षोत्सव का निरूपण, पृ० 378.-442 3. सत्तावीसं अणगारगुणा पण्णत्ता, तं जहा पाणातिवायवेरमणे, मुसावायवेरमणे,आदिण्णदानवेरमणे, मेहुणाओवेरमणे, परिग्गाहो वेरमणे, सोइंदियनिग्गहे, चक्खिंदियनिग्गहे, धाणिंदियनिग्गहे, जिभिंदियनिग्गहे, फासिंदियनिग्गहे, कोहविवेगे, माणविवेगे, मवयाविवेगे, लोभविवेगे, भावसच्चे करणसच्चे, जोगसच्चे, खमा, विरागता, मणसमाहरणता, वतिसमाहरणता, कायसमाहरणता, णाणसंप्पणया,दंसणसंप्पणया, चरित्तसंप्पणया, वेयणअहियासणया, मारणंतिय अहियासणया / समवाओ, 27.1 विस्तार के लिए देखिए-प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध, परिच्छेद-, पृ० 245-153 5. वही, पृ० 137-138
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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