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________________ उपाध्याय परमेष्ठी 171 (ङ) बारह प्रकार के तप के धारक : वासनाओं को क्षीण करने तथा समुचित आध्यात्मिक शक्ति की साधना के लिए शरीर, इन्द्रिय और मन को जिन-जिन उपायों से तपाया जाता है, वे सभी तप कहे जाते हैं। हमारी आत्मा के साथ चिपके हुए कर्मों की संख्या बहुत अधिक है, उन्हें आयु के अल्पकाल में ही भोग कर समाप्त नहीं किया जा सकता। अतः जिस प्रकार एक विशाल तालाब के जल को सुखाने के लिए जल के द्वार को बन्द करने के अतिरिक्त उसके जल को उलीचने एवं सूर्य आदि के तापसे सुखाने की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार संयमी को भी पूर्वसंचित कर्मों को नष्ट करने के लिए अहिंसा आदि व्रतों के अतिरिक्त तप की भी आवश्यकता पड़ती है। तप को प्रथमतः बाह्य और आभ्यन्तर इन दो भागों में बांटा गया है। जिसमें शारीरिक क्रिया की प्रधानता हो वह बाह्य तप है तथा जिसमें मानसिक क्रिया की प्रधानता हो वह आभ्यन्तर तप कहलाता है। फिर दोनों के छह-छह भेद बतलाए गए हैं। (अ) बाह्य तप के छह भेद (1) अनशन तप : सब प्रकार के भोजन पान का त्याग करना उपवास अथवा अनशन तप है। यह दो प्रकार का होता है-(१) इत्वरिक और (2) मरणकाल। इत्वरिक तप में साधक सावकांक्ष अर्थात् निर्धारित समय के बाद पुनः भोजन की आकांक्षा वाला होता है और मरणकाल तप निरवकांक्ष अर्थात् भोजन की आकांक्षा से सर्वथा रहित होता है। इस प्रकार यह तप इत्विरिक की तरह सावधिक न होकर जीवनपर्यन्त चलने वाला होता है। 1. जहा महातलायस्स सन्निरुद्ध जलागमे। उस्सचिंणाए तवणाए कमेणं सोसणा भवे।। एवं तु संजयस्सावि पावकम्मनिरासवे। भवकोडीसंचियं कम्मं तवसा निजजरिज्जई।। उ०.३०.५-६ 2. अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशाः बाह्यतपः / त०सू०६.१६ 3. अनशनमुपवासः / भावपाहुड़, गा० टी०,७८, पृ० 353 4. इत्तिरिया मरणकाले दुविहा अणसणा भवे इत्तिरिया सावकरवा निरवकंखा बिइज्जिया।। उ० 30.6 ॐ
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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