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________________ 166 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी (1) निसर्गरुचि :निसर्गरुचि से अभिप्राय है-स्वतः उत्पन्न। गुरु आदि के उपदेश के बिना स्वयं के ही यथार्थ बोध से जीव आदितथ्यों में श्रद्धा होना किये वैसे ही हैं जैसे जिनेन्द्र भगवान् ने देखे हैं,अन्यथा नहीं हैं।' (2) उपदेशरुचि:गुरू आदि केउपदेश से जीव आदि तथ्यों में श्रद्धा होना उपदेशरुचि है।। इसकी उत्पत्ति में परोपदेश निमित्तकारण होता है। (3) आज्ञारुचि :गुरु आदि के आदेश से तथ्यों में श्रद्धा होना आज्ञारुचि है। उपदेशरुचि में गुरु के उपदेश की जबकि आज्ञारुचि में गुरु की आज्ञा की प्रधानता रहती हैं। (4) सूत्ररुचिः सूत्र सेअभिप्राय है-अंगयाअंग बाह्य जैनागम सूत्र-ग्रन्थ। अतः सूत्र ग्रन्थों के अध्ययन से जीव आदि तथ्यों में श्रद्धा होना सूत्ररुचि है। (5) बीजरुचि जैसे जल में तेल की बूंद फैल जाती है, वैसे ही जो सम्यक्त्व एक.पद (तत्त्व बोध) से अनेक पदों में फैल जाता है, वह बीजरुचि है। (6) अभिगमरुचि :अंग और अंगबाह्य सूत्र-ग्रन्थों के अर्थज्ञान से उत्पन्न होने वाला सम्यग्दर्शन अभिगमरुचि कहलाता है। सूत्ररुचि और अभिगमरुचि सम्यग्दर्शन में विशेष अन्तर यही है 1. भूयत्येणाहिगया जीवाजीवा य पुण्णपावं च। सहसम्मुइयासवसंवरो य रोएइ उ निसग्गो।। जो जिणदिवें भावे चउबिहे सद्दहाइ सयमेव / __एमेव नन्नहत्ति य निसग्गलइ ति नायव्यो / / वही, 28.17-18 2. एए चेव उ भावे उवइवें जो परेण सद्दहई। छउमत्येण जिणेण व उवस्सरूइ त्ति नायव्यो।। उ०२८.१६ 3. रागो दोसो मोहो अन्नाणं जस्स अवगयं होइ। आणाए रोयंतो सो खलु आणारूई नाम।। वही, 28.20 4. जो सुत्तमहिज्जन्तो सुएण ओगाहई उ सम्मत्त। अंगेण बाहिरेण व सो सुत्तरूइ ति नायव्वो / / वही. 28.21 5. एगेण अणेगाइं पयाइं जो पसरई उ सम्मत्तं। उदएव्व तेल्लबिन्दु सो बीयरूइत्ति नायव्वो।। वही, 28.22 6 सो होइ अधिगमरूई सुयनाणं जेण अत्थओ दिठें। एक्कारस अंगाई पइण्णगं दिठिवाओ य।। उ० 28.23
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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