SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 158 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी क्रियाएं उसी प्रकार से चलती हैं।' 11. ग्यारहवीं प्रतिमा : यह भिक्षु प्रतिमा एक अहोरात्रि अर्थात आठ प्रहर की होती है। यहाँइतना विशेष है कि--यहचौविहार षष्ठभक्त से की जाती है। चतुर्विध आहार का त्याग कर नगर से बाहर दोनों हाथों को घुटनों की ओर लम्बा करके दण्डायमान रूप में खड़े होकर कायोत्सर्ग किया जाता है। 12. बारहवीं प्रतिमा : एकरात्रि की बारहवीं प्रतिमा में केवल एक रात की आराधना होती है। इसमें चौविहार अष्टभक्त के साथ ग्राम या नगर से बाहर निर्जन स्थान में खड़े होकर, मस्तक को थोड़ा सा झुकाकर, किसी एक पुद्गल पर निर्निमेष दृष्टि रखकर निश्चलतापूर्वक कायोत्सर्गकिया जाता है। देव,मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी जितने भी उपसर्ग उत्पन्न हों उन सबको सहन करता है। तभी यह प्रतिमा पूर्ण होती है। (घ) पच्चीस प्रकार की प्रतिलेखना : साधु के लिए दो क्रियाएँ करना अत्यन्त आवश्यक है--प्रतिलेखना एवं प्रर्माजना। आंखों से देखना' प्रतिलेखना है जबकि 'प्रमार्जिका आदि से साफ करना प्रमार्जना है। भिक्षुद्वारा ये दोनों क्रियाएँ प्रातः एवं सायं प्रतिदिन की जाती हैं। इसके अतिरिक्त पात्र इत्यादि उपकरणों को उठाते एवं रखते समय भी इन क्रियाओं को करना होता हैं। इन क्रियाओं के करने से षट्काय के जीवों की रक्षा होती है और न करने से उनजीवों की हिंसा सम्भव है। अतः अहिंसाव्रत का पालन करने वाले भिक्षु के लिए इन्हें करना आवश्यक है। यह प्रतिलेखना पच्चीस प्रकार की होती है-- (अ) विधिपरक प्रतिलेखना के छह भेद : (1) उड्द (ऊर्ध्वम्) उकडू आसन से बैठकर वस्त्र को भूमि से 1. दे०-दशा०७.२५ 2. वही, 7.26 3. वही,७.२७ 4. चक्खुसा पडिलेहित्ता पमज्जेज्ज जयं जई। आइए निक्खिवेज्जा वा दुहओ वि समिए सया।। उ०२४.१४ 5. दे०-वही, 36.30-31 6. उड्ढं थिरं अतुरियं पुत् ता वत्थमेव पडिलेहे। तो विइयं पप्फोडे तइयं च पुणो पमज्जेज्जा / / वही, 26. 24
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy