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________________ उपाध्याय परमेष्ठी 153 (ख) बारह प्रकार की भावना : बारह प्रकार की भावनाएं अनुप्रेक्षाओं के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। शरीर आदि के स्वरूप का बार-बार श्रेष्ठता के साथ विचार करना, भावना करना अनुप्रेक्षा है। ये बारह अनुप्रेक्षाएं निम्न प्रकार हैं-- (1) अनित्यानुप्रेक्षा : संसार में जो कुछ भी उत्पन्न हुआ है, उसका विनाश नियम से होता है। शरीर और घरबार आदि वस्तुएं एंव उनके सम्बन्ध नित्य और स्थिर नहीं हैं, ऐसा चिन्तन करना अनित्यानुप्रेक्षा है। (2) अशरणानुप्रेक्षा : एक मात्र शुद्धधर्म ही जीवन शरणभूत है। जैसे निर्जन वन में सिंह के पंजे में पकड़े हुए मृग का कोई सहायक नहीं होता है उसी प्रकार जन्म, जरा, मरण एवं रोग आदि दुःखों से ग्रस्त जीवन का भी कोई शरण नहीं है, ऐसा चिन्तन करना अशरणानुप्रेक्षा है। 3. संसारानुप्रेक्षा : इस संसार में भ्रमण करने वाला जीव जिस जीव का पिता होता है, वही जीव कभी उसका भाई कभी पुत्र और कभी पौत्र भी हो जाता है और जो माता होती है, वही कभी बहिन, भार्या, पुत्री और पौत्री भी हो जाती है। स्वामीदास होता है और दास कभी स्वामी हो जाता है। इस प्रकार जीव नट की तरह नाना वेषों जन्मों को धारण करता हुआ संसार में दुःखों को भोगता है, इस प्रकार चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा है / / 4. एकत्वानुप्रेक्षा : संसार में जीव को सुख-दुःख में साथ देने वाला कोई नहीं। यह अकेला ही समस्त शारीरिक एवं मानसिक दुःखों को सहन करता है एवं अकेला ही मरता है। कविवर दौलत राम ने बड़े सुन्दर शब्दों में कहा है-- 1. कायादिस्वभावानुचिन्तनमनुप्रेक्षा / / त०१० 6.2. पृ० 282 2. अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुचित्वानवसंवरनिर्जरा-- लोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्वानुचिन्तमनुप्रेक्षाः। त०सू०६.७ 3. जं किं चि उप्पण्णं तस्स विणासो हवेइ णियमेण। परिणाम सरूवेण वि ण य किंचि वि सासयं अत्थि।। कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा०४ 4. सीहस्स कमे पडिदं सारंगं जह ण रक्खदे कोवि। तह मिच्चुणा य गहिदं जीवं पिण रक्खदे कोवि / / वही, गा०२४ जीवःकर्मवशाद भ्रमन् भववने भूत्वा पिता जायते। पुत्रश्चापि निजेन मातृभागिनीभार्यादुहित्रादिकः / राजापतिरसौ नृपः पुनरिहाप्यन्यत्र शैलूषवत् नानावेषधरः कुलादिकलितो दुःख्येव मोक्षादृते।। त०१० 6.7. पृ० 286
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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