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________________ 152 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी (1) आचारांगसूत्र (2) सूत्रकृतांगसूत्र (3) स्थानांगसूत्र (4) समवायांगसूत्र (5) व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (6) ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र (7) उपासकदशांगसूत्र (8) अन्तकृदशांगसूत्र (6) अनुत्तरौपपातिकदशांगसूत्र (10) प्रश्नव्याकरणसूत्र (11) दृष्टिवाद। बारहवें अंग ग्रन्थ दृष्टिवाद के लुप्त हो जाने के कारण वर्तमान में उपाध्याय के द्वारा 11 अंगों का ही पठन-पाठन किया कराया जाता है। (2) करणसप्तति के धारक उपाध्याय : करण एक पारिभाषिक शब्द है / करण का अर्थ है-जिस समय पर जो क्रिया करणीय हो, उसे करना / जैसेकि अशनआदिचार प्रकार की पिण्डविशुद्धि, पाँच प्रकार की समिति, बारह प्रकार कीभावनाएं, बारह प्रकार की भिक्षु-प्रतिमा, पाँच प्रकार का इन्द्रिय-निरोध, पच्चीस प्रकार की प्रतिलेखना, तीन गुप्तियाँ और चार प्रकार का अभिग्रह / इस तरह करणसप्तति सत्तर प्रकार के विषयों का वर्णन करती है।' उपाध्याय परमेष्ठी भी इससे सम्पन्न होते हैं। (क) चार प्रकार की पिण्डविशुद्धि : निर्दोष आहार,वस्त्र, पात्रऔरस्थल कासेवन-यहीचतुर्विधपिण्डविशुद्धि है। साधुको आहार, उपकरण (वस्त्रएंव पात्रादि)और शय्याआदि की गवेषणा करते समय 46 दोषों से विशुद्ध होना चाहिए, जिसका वर्णन पूर्व में एषणा समिति में किया जा चुका है। 1. पिण्डविसोही समिई भावण पडिमा य इंदियनिरोहो। पडिलेहणं गुत्तीओ अभिग्गहा चेव करणं तु / / प्रवचनसारोद्धार, गा०५६३
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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