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________________ 82 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी 17-18 उनके मोहनीय कर्म की दोनों प्रकृतियां-दर्शनमोहनीय एवं चारित्रमोहनीय, भी समाप्त हो जाती हैं जिससे वे क्षायिक सम्यक्त्व से युक्त हो जाते हैं। १६-२२आयुष्यकर्म की चारों प्रकृतियां-नरकायु तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु के क्षय हो जाने से वे शाश्वत, नित्य यथास्थिति को प्राप्त हो जाते हैं। 23-24 गोत्रकर्म की दोनों प्रकृतियां-उच्चगोत्र और नीचगोत्र का भी अभाव हो चुका होता है जिससे वे अगुरुलघुत्व अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं। 25-26 इसीप्रकार नामकर्मकी दोनों प्रकृतियां-शुभनामऔर अशुभनाम के भीक्षीण हो जाने से वे सब प्रकार के रूपों से मुक्त होकर अरूपित्व सुक्ष्मत्व को प्राप्त हो जाते हैं। २७-३१सिद्धभगवान् के अन्तराय कर्म की पांचों प्रकृतियां-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने से उक्त पांचों अनन्त शक्तियां भी उनमें प्रादुर्भूत हो जाती हैं जिससे वे अनन्त शक्तिमान् कहे जाते हैं। उपर्यक्त सिद्धों के ३१आदिगुणों के विवेचन से यह विदित होता है कि ये गुण पूर्वोतर उनके आठ मूलुगुणों का ही विस्तृत रूप है। (च) सिद्धों की अवगाहनाः ___अवगाहना से अभिप्राय है-शरीर का आकार या ऊंचाई। सिद्ध शरीर रहित होते हैं परन्तु उनके भौतिक शरीर एवं रूप आदि के न होने पर सिद्ध जीव का अभाव हो जाता है किन्तु ऐसा नहीं है कारण कि उन्हें घनरूप कहा गया है। मन, वचन, काय योगों का त्याग करते समय अयोगी गुणस्थान में जैसा कि अन्तिम शरीर का आकार रहता है, उस आकाररूप उन जीवों के प्रदेशों का घनरूप सिद्धों का आकार होता है। घनरूप कहने का तात्पर्य यह है कि मोक्ष अभाव रूप नहीं है, अपितु भावात्मक है। सिद्ध-अवगाहना का आकार : उत्तराध्ययनसूत्र में बतलाया गया है कि 'मुक्त होने से पूर्व जीव जिस 1. जीवप्रदेशव्यापित्वं तावदवगाहनमुच्यते।। स०३०, 10.6, पृ०३२४ . 2. जं जस्सदु संठाणं चरिमसरीरस्स जोगजहणम्मि तं संठाणं तस्स दु जीवघणो होइ सिद्धस्स / / भग० आ० 2.26
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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