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________________ 81 सिद्ध परमेष्ठी हैं। इसे ही अक्षयस्थिति भी कहा जाता है। (7) सूक्ष्मत्व :नामकर्म का सर्वथा अन्त होने पर सिद्ध जीव सब प्रकार के स्थूल और सूक्ष्म रूपों से मुक्त होकर सूक्ष्मत्व (अरूपित्व) को प्राप्त हो जाता है। तब उसे इन्द्रियां ग्रहण नहीं कर सकतीं, यही उसकी सूक्ष्मता है। (E) अगुरुलघुत्व :सिद्धत्व लाभ से गोत्र कर्म का भी क्षय हो जाता है और उन्हें अगुरुलघुत्व गुण की प्राप्ति हो जाती है। जब गोत्रकर्म रहता है तब उच्च गोत्र के कारण नाना प्रकार की गुरुता और नीच गोत्र के कारण नाना प्रकार की लघुता की प्राप्ति होती है, तथा जब गोत्रकर्म ही क्षीण हो गया तब गुरुता-लघुता भी समाप्त हो जाती है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सिद्ध भगवान् अगुरुलघुत्व गुण से भी युक्त होते हैं। (ङ) सिद्धों के आदिगुण :आदिगुण से अभिप्राय है-मुक्त होने के प्रथम क्षण में होने वाला गुण। इनकी उत्पत्ति में क्रम-भावित्व नहीं होता। वे सभी गुण इन्हें युगपद् ही उत्पन्न होते हैं / अतः ये सहभावी गुण भी कहलाते सिद्धों के ये आदि गुण इकतीस हैं१-५सिद्धभगवान् के पांच प्रकार के आभिनिबोधिक,श्रुत,अवधि,मनःपर्यय और केवलज्ञान पर आए हुए आवरण का क्षय हो चुका होता है। 6-14 सिद्ध भगवान् के चार प्रकार के दर्शन सम्बन्धी-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन, तथा पांच प्रकार के निद्रा सम्बन्धी-निद्रा,निद्रा-निद्रा,प्रचला, प्रचला-प्रचलाऔरस्त्यानगृद्ध, इस प्रकार नौ प्रकार के दर्शनावरण का भी क्षय हो चुका होता है। 15-16 ऐसे सिद्ध भगवान् के वेदनीय कर्म की दोनों प्रकृतियां-सातारूप और असातारूप भी क्षीण हो चुकी होती हैं / अतः वे अक्षय आत्मिक सुख में सदैव मग्न रहते हैं। 1. दे०-समवाओ, टि० 31.1, एकतीसं सिद्धाइगुणा पण्णत्ता, तं जहा खीणे आभिणिवोहियणाणावरणे, खीणे सुयणाणावरणे, खीणे ओहिणाणावरणे, खीणे मणपज्जवणाणावरणे, खीणे केवलणाणावरणे, खीणे चक्खुदंसणावरणे, खीणे अचक्खुदंसणावरणे, खीणे ओहिदंसणावरणे, खीणे केवलदंसणावरणे, खीणा निद्दा, खीणा निद्दा-निद्दा, खीणापयला,खीणा पयला-पयला,खीणाथीणागिद्धि,खीणे सायावेयणिज्जे,खीणे असायावेयणिज्जे,खीणेदंसणमोहणिज्जे,खीणे चरित्तमोहणिज्जे,खीणे नेरइयाउए, खीणे तिरियाउए,खीणे मणुस्साउए, खीणे देवाउए,खीणे अच्चागोए,खीणे निच्चागोए, खीणेशुभणामे,खीणेअशुभणामे,खीणेदाणांतराय, खीणे उलाभांतराए,खीणेभोगांतराए, खीणे उवभोगांतराए, खीणे वीरियंतराए। समवाओ, 31.1
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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