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________________ ( 258) बनवाया, जो अति सुन्दर बावन देवकुलिकाओं से शोभित है / और दर्शक महानुभावों के नेत्रों को चुरानेवाला है / देवकुलिकात्रों में विराजमान जिनप्रतिमाओं की विधिपूर्वक अञ्जनशलाका सं० 1955 फाल्गुनवदि 5 गुरुवार के दिन जैनाचार्य श्रीविजयराजेन्द्रसरिजीमहाराजने की / आहतों के अनुयायी सच्चरित्रवाले आचार्यों की पट्टावली (वंशावली) कही जाती है, जिस को सुन कर इस परम्परा की सच्चरित्र आदर्श-आत्माओं का जानपना मनुष्य को होता है। 16-21 विश्ववेदी ( सर्वज्ञ ) श्रीवर्द्धमानस्वामी के पांचवे गणधर सुधर्मस्वामी हुए / बहुत वर्ष व्यतीत होने बाद उन्हीं सुधर्मस्वामी के पट्टाधिकारी मेवाडाधिपति राणाओं के मान्य, तपागच्छरूप समुद्र में चन्द्र के समान, प्रसिद्ध नामवाले जगचन्द्रसरि नामक आचार्य हूए / और उनकी पट्टपरम्परा में बालब्रह्मचारी श्रीरत्नसूरीश्वर हुए, जिन्होंने पाट पर बैठ कर आहेत शासन की समुन्नति की / उनकी गादी पर यथार्थ नामवाले और तीक्ष्णबुद्धि वाले श्री क्षमासूरि नामक प्राचार्य हुए / 22-24. उनके पाट पर विजयकल्याणसूरि हुए, जिन्हों के द्वास स्थान स्थान पर धार्मिक प्रभावना होने से भावुकों को आनन्द प्राप्त हुआ / उनकी गादी पर श्रीमान् विजयप्रमोदसूरि हुए, जिन्होंकी धर्मकथा ( धर्मदेशना ) रूप सुधा के पान से श्रावकगण अत्यन्त आनन्दिन हुए। उन विद्वानों से प्रशंसा करने योग्य और सच्चरित्र महर्षी (प्रमोदसूरिजी) के शिष्य सुविनीत, समयज्ञ, और विद्वानों में उत्तम विजयराजेन्द्रसरि हुए।
SR No.023534
Book TitleYatindravihar Digdarshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1925
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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