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________________ (474) की ओर उपेक्षा दृष्टि से देखने से, ज्ञानावरणीय कर्म के आत्रक आते हैं। इसी तरह दर्शन की प्रत्यनीकता-आशातना-करने से दर्शनावरणी कर्म के आस्रव आते हैं। अर्थात् चक्षुदर्शन, अचक्षु दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन को धारण करनेवाले साधु महात्माओं के लिए अशुभ विचार करनेवाले, और सम्मतितर्क नयचक्र और तत्वार्थादि ग्रंथों की अवहेलना यानी अपमान करनेवाले जीवों के दर्शनावरणीय कर्म के आस्रव होते हैं। देवपूजा, गुरु सेवा, सुपात्र दान, दया, क्षमा, सराग संयम, देशसंयम, अकामनिर्नरा ( अंतःकरण शुद्धि ) बाल तप (अज्ञान कष्ट) ये सातावेदनीय कर्म के आस्रव हैं / और दुःख, शोक, वध, ताप, आक्रंदन और रुदन स्वयं करने से व दूसरों से कराने से असातावेदनीय कर्म के आस्रव होते हैं। मोहनीय कर्म के दो भेद हैं। दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय / दर्शनमोहनीय के सामान्य आस्रवों का वर्णन श्रीमद् हेमचंद्राचार्य ने श्रीसुविधिनाथ चरित्र में इस तरह किया है: वीतरागे श्रुतेसंघे धर्मे संघगुणेषु च / अवर्णवादिता तीव्रमिथ्यात्वपरिणामता // 1 // सर्वज्ञसिद्धदेवापह्नवो धार्मिकदूषणम् / उन्मार्गदेशनानग्रहोऽसंयतपूजनम् // 2 //
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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