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________________ ( 396 ) कि तुने जिन-धर्मोपदेश सुना। तेरा जन्म सफल हुआ / " माता जब चुप हो गई, तब लड़केने कहा:-" माता ! मेरा विचार है कि, मैं सारी उपाधियों को छोड़ कर साधु बन जाऊँ / " वृद्धा घबरा कर बोली:-" हे वत्स ! ऐसा कभी न करना / तू संसार ही में रह कर धर्म ध्यान कर, इससे मैं भी प्रसन्न हूँ। परन्तु यदि तू साधु होगा तो मैं कूए में गिर कर मर जाऊँगी / इससे तेरा कल्याण न हो कर अकल्याण ही होगा।" अपनी माता की बातें सुन कर, लड़का सोचने लगा कि, मोह में पड़ कर शायद माता कूए में गिर जाय तो मेरा बडा अपयश हो / इस लिए दो चार वर्ष का विलंब हो तो कुछ हानि नहीं है। फिर उसने वृद्धासे कहा:-" माता ! तुम लेश मात्र भी मत घबराओ। मैं तुम्हारी आज्ञा के विना कदापि साधु नहीं बनूंगा।" लडके के वचन सुन कर माता शान्त हुई। माता और पुत्र दोनों शान्ति के साथ गृहस्थ धर्म पालते हुए दिन बिताने लगे / कर्म योगसे एक वार लडके को ज्वर आया / दो दिन के पश्चात् सन्निपात हो गया। लोग लडके को देखने आने लगे। वैद्योंने इलाज किया मगर लड़के की हालत में कुछ भी फरक नहीं पड़ा। तब लोग कहने लगे कि, अन्य औषधियों की अपेक्षा धर्मोषध देना ही अच्छा है। वृद्धा विचारने लगी कि, यदि लड़का मर जायगा तो मुझे अकेले ही रहना पड़ेगा।
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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