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________________ (127 ) शरीर, आत्मा, वर्ण या कुल से ब्राह्मण नहीं कहला सकता। यदि कोई हठसे ब्राह्मण कहलाता है तो उसका कभी कल्याण नहीं होता है। कल्याण या आत्मोन्नति तो उसी समय होगी जब शम, दम, वैराग्य, परोपकार और संतोषवृत्ति आदि गुणगण पैदा होंगे। जिसका आत्मा उन्नत हुआ वह वास्तविक रीत्या स्वयमेव उच्च जातिवाला होगया। चाहे कोई किसी जाति का हो, वह धर्मोपदेश और व्रतपालन में समान अधिकारी है। जिस दर्शन में पक्षपात है वह दर्शन, उतने विचारों में आगे बढ़ा हुआ नहीं है। एक दूसरे के साथ बैठकर खानपान करना या न करना, इसका आधार देशाचार, कुलाचार और प्रेम पर है। वीर परमास्मा का पक्षपात रहित यह उपदेश है कि, धर्म सबके लिए है। चाहे किसी जाति का मनुष्य चारित्र पाले, वह स्वर्गापवर्ग प्राप्त कर सकता है / यदि शान्ति से विचारेंगे तो मालूम होगा कि जाति का झगड़ा थोड़े ही काल से चला है। एक जगह मैंने पढा है कि, पहिले सब जगत एक ही वर्णवाला था। पीछे से वह गुण और क्रिया की विभिन्नता से चार भागों में विभक्त होगया। अब चारके चार सौ हो जायँ तो कौन क्या करे ! मगर यह कहना सर्वथा अनुचित है कि, अमुक धर्मक्रिया करने का अधिकारी नहीं है / शूद्र हो या क्षत्री आत्म-वीर्य में तो दोनों ही समान हैं / क्षत्रियों का कुल उत्तम है। इसीलिए सब तीर्थंकर क्षत्रियकुल में ही उत्पन्न हुए हैं। मगर इससे शूद्रकुल का अधि
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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