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________________ (213) / हितं न कुर्यान्निनकस्य यो हि, - परोपदेशं स ददाति मूर्खः / ज्वलन्न मूलं स्वकपादयोश्च, दृश्येत मूढेन परस्य गेहम् / / भावार्थ-जो अपना हित न कर दूसरोंको उपदेश देता है वह मूर्ख है / मूढ अपने पैरों में जलती हुई दावानल को तो नहीं देखता मगर दूसरों के जलते हुए घर को देखता है / तात्पर्य यह है कि जो अपनी आत्मा का विचार न कर दसरों को उपदेश देता है वह पंडित नहीं है। पंडित वही होता है जो अपना कल्याण करता हुआ दूसरों के कल्याण का उद्यम करता है / मोह को भी ऐसा ही मनुष्य जीत सकता है / इसी हेतु से गाथा में 'वीर' विशेषण दिया गया है। अन्य प्रकार के वीरों की अपेक्षा इस प्रकार का वीर वास्तविक वीर होता है। जो जगत को जीतने वाले देव नामधारी कई देवों को अपने वश में करता है और जो मुक्ति-सोपान पर चढ़ने वाले मुमुक्षु मनुष्यों को संप्तार्णव में फैंक देता है, उस मोह राक्षप्त को जीतनेवाला ही वास्तविक * वीर ' कहलाता है। अन्य वीर पाप में आसक्त होते हैं, मगर इस वीर के लिए तो विशेषण . दिया गया है-'पावाभो विरए ' ( पाप कर्म से विरक्त-कोई पाप नहीं करनेवाला ) संसार में एक भी जीव ऐसा नहीं है
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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