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________________ (168 ) को ही प्रामाणिक मानते हैं; जो प्रत्यक्ष दिखता है उसी को स्वीकार करते हैं, दूसरी बातों का इन्कार करते हैं, और दूसरों को भी इसी प्रकार की उपदेश देते हैं। कई जड़वादी पंच महाभूतों को ही मान आत्मादि वास्तविक पदार्थों को मिथ्या बताते हैं / कई बृहस्पति के संबंधी होने का दावा कर मद्य, मांस और स्त्री सेवन आदि गर्हणीय बातों को धर्म मानते हैं, और इस तरह आप दुष्ट पथ में चल कर दूसरे लोगों को उस पथ पर चलने के लिए घसीटते हैं। कई जन सेवा करनेवाले मनुष्यों ही को देव मानते हैं और गृहस्थ से भी उतरती श्रेणीवाले को गुरु मानते हैं / अर्थात् कई ऐसे लोगों को गुरु मानते हैं जो भ्रष्टाचारी हैं और भ्रष्टाचार का उपदेश देनेवाले हैं; जो स्त्रियों को उपदेश देते हैं कि-" यह वृन्दावन है; इस में मैं मधुसूदन हूँ, तू राधिका है / इस लिए यहाँ मेरे साथ रमण करने में तेरी कोई हानि नहीं है।" उक्त प्रकार के हजारों लाखों उपदेशक हैं। वे आप संसार सागर में डूबते हैं और बिचारे दूसरे लोगों को भी डुबाते हैं। छुट्टियों के दिनों में-जैसे रविवार आदि दिनों में-शहरों में हजारों समाएँ होती हैं। उन में हजारों उपदेशक होते हैं और वे हमारों प्रकार की नवीन कल्पनाओं की, और विचारों की भिन्नताओं का समूह जन समाज के आगे रखते हैं। मगर
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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