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________________ ( 167 ) प्रकरण दूसरा। संसार में जैसे उपदेशकों की संख्या बताना कठिन है वैसे ही मतों की गिनती बताना भी अल्पज्ञों के लिए कठिन है। अपन यदि भरतक्षेत्र का विचार करेंगे तो हमें मालूम होगा कि यह सत्योपदेश से सर्वथा वंचित हो रहा है। जिस के मन में जो विचार उत्पन्न होते हैं, उन को वह तत्काल ही प्रकाशित कर देता है / और जहाँ कहीं बीस पचीस मनुष्य उस के विचारों के अनुकूल हो जाते हैं, वहीं उस का एक नवीन मत चल पड़ता है। __आजकल कितने ही उपदेशक अपने देशाचार को जलाअली दे, कोट, पतलून और बूट आदि में मस्त हो; अपनी स्त्रियों को साथ ले, अपने समान विचारवालों के यहाँ जाते हैं। वहाँ दो चार गीत, गा, गवा, संगीतकला का आस्वादन कर धन्यवाद की लेन देन कर वापिस चले आते हैं। कई काल के अनुसार पाँच पचास शब्द बोल, अपनी वाहवाह करवाने ही में आनंद मानते हैं / कई विचारे मोहाधीन हो, ईश्वर का स्वरूप स्वयमेव न समझे होते हैं तो भी दूसरे को ईश्वर का स्वरूप बताने की कोशिश करते हैं / कई उपदेशक केवल प्रत्यक्ष प्रमाण
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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