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________________ नीति-शिक्षा-संग्रह (29) (२)दूसरे के स्वच्छन्द आचरण करने से उतनी हानि नहीं, जितनी हानि अपने स्वच्छन्द-आचरण से होती है। (३)दूसरे पर अंकुश रखने की इच्छा करने की अपेक्षा अपने पर यत्न-पूर्वक अंकुश रखना अधिक लाभदायक है। (4) अपनी आत्मा पर प्रेम करना पाप नहीं; किन्तु उपेक्षा करना महापाप है। (५)बुरे विचारों के पास होने के समान दूसरा कोई दुर्भाग्य नहीं / (६)जो अपने मन पर विजय पाता है,वह समस्त संसार पर विजय पा सकता है / जो अपने को वश में नहीं कर सकता, वह दूसरे को भी वश नहीं कर सकता / (७)चतुर मनुष्य हमेशा शांत वृत्ति का ही सेवन करते हैं / अपनी वृत्ति को बुरी न होने देने के लिए प्राण-प्रण से चेष्टा करनी चाहिए। (८)सद् गुणी या दुर्गुणी होना अपने ही हाथ में है / दूसरी सब बातें पराधीन हैं। (6)अपनी हानि करने वाली वस्तुतः अपनी दुष्ट वृत्तिया ही हैं / दूसरी बाहर की वस्तुएँ नहीं / (१०)लोहार लोहेको तथा मुनार सोनेको वड़कर उसे सुन्दर आकार में लानेके लिए जितनी सावधानी और प्रेम रखता है उतनी
SR No.023531
Book TitleNiti Shiksha Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBherodan Jethmal Sethiya
PublisherBherodan Jethmal Sethiya
Publication Year1927
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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