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________________ ( १९८) . जी० ॥ अप्रमादी ऋद्धिवंत, गुणठाणे गुण नीपजे ॥ जीरेजी ॥ ४ ॥ जी० ॥ एक लक्ष पीस्तालीस हजार, पांचशे एका' (१४१५९१ ) जाणीए || जीरेजी ॥ जी० ॥ मननाणी मुनिराज, चोवीश जिनना वखाणीए ॥ जीरेजी ॥५॥ जी० ॥ हुं वंदु धरी नेह, सवि संशय हर मनतणा ॥ जीरेजी ॥ जी० ॥ विजयलक्ष्मी शुभ भाव, अनुभव ज्ञानना गुण घणा ॥ जीरेजी ।। ६।। जी० ॥ ॥ इति मनःपर्यव ज्ञान स्तवन ।। पछी जयवीयराय कही, खमासमण दइ, इच्छाकारेण सं० ॥ मनापर्यव ज्ञान आराधनार्थ करोमि काउस्सगं ॥वंदणव० ॥ अन्नथ्य० ॥ एक लोगस्स अथवा चार नवकारनो काउस्सग्ग करी थोय कहवी ते आ प्रमाणे-- ॥ अथ थोय ॥ ॥ श्री शंखेश्वर पास जिनेश्वर ॥ ए देशी ॥ प्रभुजी सर्व सामायिक उचरे, सिद्ध नमी मदवारी जी ॥ छमस्थ अवस्था रहे छे जिहां लगे, योगासन तपधारीजी ।। चो) मनपर्यव तव पामे, मनुज लोक विस्तारी जी। ते प्रभुने प्रणमो भवि प्राणी, विजय लक्ष्मी सुखकारी जी ॥१॥ - ॥ इति स्तुति ।।
SR No.023524
Book TitleGyanpanchami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManek Bahen
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1914
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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