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________________ शान, दर्शन, चरण (चारित्र), तप अने वीर्य. जो के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःवर्यवज्ञान अने केवळज्ञान, ए प्रमाणे ज्ञानना पांच भेद छे, तो पण अहीं काळ, विनय, विगेरे आठ प्रकारनो ज्ञानाचार कहेवामां आवशे, अने ते श्रुतज्ञानमाज संभवे छे, तेथी अहीं श्रुतज्ञान विषेज अधिकार छ, एम जाणवू. श्रुतज्ञानथीज बाकीनां ज्ञानो प्रकाश छ केमके श्रुतज्ञान प्राप्त थया पछीज प्राये बीजां ज्ञानो प्राप्त थाय छे. वळी एक अपेक्षाए केवळ ज्ञान करतां पण श्रुतज्ञानतुं अधिकपणुं छे. ( उत्कृष्टपणुं छे), ते विषे पिंडनियुक्तिमां को छे के-" ओघे करीने ( सामान्य रीते ) पिंडविशुद्धयादिक श्रुतज्ञानने विषे उपयोगवंत एटले के श्रुतने अनुसारे " आ कल्प्य छे, आ अकल्प्य छे" एवी रीते जाणता श्रुत ज्ञानी जो कोइ पण कारणथी अशुद्ध आहार लावे; तो पण केवळज्ञानी (केवळी) तेनो आहार करेछे. जो केवळी ते आहार ग्रहण न करे तो श्रुतज्ञान अप्रमाणिक थाय. कारण के छद्मस्थ साधु श्रुतज्ञानना बळे करीनेज शुद्ध आहारनी गवेषणा करी शके छे, ते सिवाय बीजी रीते करी शकता नथी. तेथी जो कदाच श्रुतज्ञानीए श्रुतने अनुसारे गवेषणा कर्या छतां पण “ अशुद्ध आहार आण्यो" एम कहोने केवळी तेनो आहार न करे, तो श्रुतउपर अविश्वास थाय, अने तेथी कोइ पण श्रुतनुं प्रमाण न करे. तथा श्रुतज्ञानना अप्रामाण्यथी सर्वत्र क्रियाना लोपनो ( अभावनो) प्रसंग आवे, केमके छद्मस्थाने श्रुतविना क्रियाकांडनुं ज्ञान शाथी करवू ? " तथा विशेषावश्यकमां पण कर्तुं छे के-" श्रुतज्ञान महर्द्धिक ( सौथी मोडं ) छे, अने
SR No.023524
Book TitleGyanpanchami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManek Bahen
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1914
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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