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________________ सिद्धांतरहस्य ॥५३॥ जीवखरूप ॥५३॥ कहे के-'जीव' सर्व लोक (ब्रह्मांडमात्र)मां व्यापी रहेलो छे ते अधिक प्ररूपणा. वळी कोइ कहे के- 'जीव' पंचचभूतथी जूदो नथी, पंचभूतना संयोगथी उत्पन्न थाय छे अने तेना वियोगथी जीव नाश पामे छे; ते विपरीत प्ररूपणा. आ रीते जीवादिक नव पदार्थोनुं विपरीत श्रद्धान ते मिथ्यात्व, अथवा जिन प्रवचनमा श्रद्धा होवा छतां 'जमालीनी' जेम एकज पदने न सद्दहे तेने पण मिथ्यात्वी कहीए. जैन दर्शना 'आत्मा' द्रव्यार्थिक न ये नित्य, अकृत्रिम, अखंड, अविनाशी छे अने पर्यायास्तिकनये जीवना पर्यायो बदलाय छे माटे अनित्य पण कहीए संसारीजीव शरीरमात्र व्यापक छे, परिणामी छे. एवीरीते नय प्रमाणादि पूर्वक स्थाबाद श्रद्धा रहितज होय ते पण मिथ्यात्वीज जाणवो. ते जीव गेडी-दडाना न्याये संसारमा परिभ्रमण करे पण भवनो पार पामे नहिं. हवे बीजा गुणस्थानना लक्षण कहे छे-जेम कोइ पुरुष खीरखांडर्नु भोजन करीने वमन करे तो पण तेने कांइक 'रस'नो स्वाद रहे छे तेम समकीतनुं वमन करतां कांइक समकीतनो अंश रह्यो, तेने सास्वादन गुणस्थान कहीए. अथवा ममकीतरूपी महेलथी पडतां ज्यांसुधी मिथ्यात्वरूपभूमि उपर आवq थयुं नथी, त्यांसुधी सास्वादनगु० कहीए. जीवने सास्वादन ममकीत एक भवमा एकज वखत आवे अने संसारमा परिभ्रमण करतां पांचवार आवे. हवे त्रीजा गुणस्थानना लक्षण कहे छे:-जेम गोळ अने दहींना संयोगथी बे रसनो मिश्र थाय छे तेम मिश्रमो सास्वादन गुणठाणावालाने अनंतानुबंधी करायनो अवश्य उदय १ पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायु अने आकाश. २देशथी मिथ्याय छे. थाय हे, तेथी तेनुं पडवू थाय के.
SR No.023509
Book TitleSiddhant Rahasya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevchandra Upadhyay
PublisherGangji Virji Shah
Publication Year1937
Total Pages248
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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