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________________ सिद्धांत रहस्य // 240 // **** स्वरुप // 24 // *** वधे छे. मनःपर्यवज्ञानी-ऋजुमति, द्रव्यतः मनुष्य क्षेत्रमा संज्ञीपर्याप्त जीवोए ग्रहण करेला अनंत मनोद्रव्यस्कंधोने उपयोग आपतां जुवे छे ( जाणे के ) अने मनः पर्यवज्ञानी-विपुलमति, तेज स्कंधोने द्रव्य-पर्यायनी अपेक्षाए विशेष स्पष्टपणे अने अधिक जाणे छे. क्षेत्रतः ऋजुमति, नीचे तिर्यग्लोकना मध्यभागथी रत्नप्रभा पृथवीना सहस्रयोजन पर्यंत अने उंचे ज्योतिष्कमंडलना उपरना भाग सुधी; तेमज तिरछो (अढी अंगुलन्यून)। बे समुद्र अने अढीद्वीप सुधी जाणे छे विपुल० पुरं जाणे छे कालतः ऋजुमति, ज• थी पल्योपमना असंख्यातमा भाग जेटलो अतीत-अनागत कालने जाणे अने उ० पण तेटलोज जाणे. विपुलमति, तेटलोज जाणे पण विशुद्ध जाणे. ऋजुमति भावतः सर्व पदार्थोना अनंतमा भागे रहेला अनंता पर्यायो जाणे अने विपुलमति, तेटलाज पर्यायोने विशुद्धपणे जाणे. केवलज्ञानी द्रव्यतः सर्व (रुपी-अरुपी) द्रव्योने, क्षेत्रतः सर्व लोकालोकने, कालतः मर्वकालने अने भावतः सर्वभावोने एक समये जाणे. मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान बन्ने साथे होय छे. ए बन्नेनी साथे अवधिज्ञान अथवा मनः पर्यवज्ञान होय तो त्रण ज्ञान साथे होय. श्रमणपणामां केवल सिवाय चार ज्ञान पण साथे होय छे. केवलज्ञान उत्पन्न थये संपूर्ण एकज केवलज्ञान होय छे. इतिज्ञान स्वरुप समाप्त. // समाप्तोऽयं ग्रंथः उपाध्याय श्रीमहेवचंद्रजी महाराज सुप्रसादात् // 2 एनो विशेष स्वरुप विशेषावश्यकादिथी जाणवू. 3 मनःपर्यायना अतिशय क्षयोपशमपणाथी जे घटादि वस्तु जुवे हे ते अवश्य विशेष सहित से . सिद्धांतमा मनःपर्यवज्ञान विशेषज्ञान कोल से निधी मनापर्ववनं दर्शन कहेल नथी. * * * * *
SR No.023509
Book TitleSiddhant Rahasya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevchandra Upadhyay
PublisherGangji Virji Shah
Publication Year1937
Total Pages248
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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