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________________ असंगत्यलङ्कारः अन्यत्र करणीयस्य ततोऽन्यत्र कृतिश्च सा । अन्यत्कर्तुं प्रवृत्तस्य तद्विरुद्वकृतिस्तथा ॥ ८६ ॥ अपारिजातां वसुधां चिकीर्षन् द्यां तथाऽकृथाः । गोत्रोद्धारप्रवृत्तोऽपि गोत्रोद्भेदं पुराऽकरोः ॥ ८७ ॥ अत्र कृष्णं प्रति शक्रस्य सोपालम्भवचने भुवि चिकीर्षिततया तत्र करणीयमपारिजातत्वं दिवि कृतमित्येकाऽसङ्गतिः । पुरा गोत्राया उद्धारे प्रवृत्तेन वराहरूपिणा तद्विरुद्धं गोत्राणां दलनं खुरकुट्टनैः कृतमिति द्विविधापि श्लेषोत्थापिता । त्वत्खङ्गखण्डित सपत्न विलासिनीनां यथा वा भूषा भवन्त्यभिनवा भुवनैकवीर ! | ~~a wwwwmnin १५१ यहाँ सुतजन्महर्षे ( रघु के जन्म के कारण दिलाप का हर्षित होना ) कारण है, निगडित. पुरुषान्तरबन्धनिवृत्ति ( अन्य कैदियों को मुक्त कर देना ) कार्य है । इन दोनों कीं कारणकार्यता का भिन्नदेशस्थ होना ही प्रसिद्ध है; इस वैयधिकरण्य का विपर्यास कर यहाँ उनका सामानाधिकरण्य वर्णित किया गया है । ८६-८७- ( असंगति के दो अन्य प्रकार भी होते हैं, उन्हीं दोनों प्रकारों का उल्लेख करते हैं ।) असंगति का एक अन्य भेद वह है, जहाँ किसी विशेष स्थान पर करणीय कार्य को वहाँ न कर, दूसरे स्थान पर किया जाय । इसी का तीसरा भेद वह है, जहाँ किसी विशेष कार्य को करने में प्रवृत्त व्यक्ति उस कार्यविशेष को न कर, उससे विरुद्ध कार्य को करे । ( इन्हीं के क्रमशः ये उदाहरण हैं । ) (१) पृथ्वी को पारिजात से रहित ( अपारिजातां, अन्य पक्ष में- शत्रुओं से रहित ) करने की इच्छावाले कृष्ण ने स्वर्ग को वैसा (अपारिजात - कल्पवृक्ष से रहित ) बना दिया । ( २ ) वराहरूप में उन्होंने गोत्र ( गोत्रा - पृथिवी ) के उद्धार में प्रवृत्त होकर भी गोत्र ( गोत्रा - पृथिवी, गोत्र - पर्वत ) का भेदन किया ! प्रथम उदाहरण इन्द्र का कृष्ण के प्रति सोपालंभवचन । कृष्ण ने पृथ्वी पर करने योग्य कार्य 'अपारिजातत्व' को पृथ्वी पर न कर स्वर्ग में किया, यह असंगति है । इसी तरह दूसरे उदाहरण में वराहरूपी भगवान् ने जो गोत्रा के उद्धार में प्रवृत्त थे, अपने खुरा घात से गोत्रों का भेदन किया । ये दोनों श्लेश्मूलक हैं । (यहाँ पहले उदाहरण में 'अपारि जातां' के श्लेष पर असंगति का चमत्कार आटत है । वसुधा के अर्थ में इसका विग्रह 'अपगतं अरिजातं यस्याः तां' होगा, स्वर्ग के पक्ष में 'पारिजातेन रहितामिति अपारिजातां' होगा । ध्यान देने की बात है कि श्लेष का यथावस्थितरूप में ही चमत्कार है, उसके भिन्नार्थं ग्रहण करने के बाद असंगति का चमत्कार भी नहीं रहेगा । ठीक ऐसे ही दूसरे उदाहरण में 'गोत्रा' तथा 'गोत्र' के सभंगश्लेष पर ही असंगति का सारा चमत्कार है। अथवा जैसे— ( असंगति के द्वितीय प्रकार का उदाहरण ) संसार से अकेले वीर, हे चोलेन्द्र सिंह, तुम्हारे खड्ग के द्वारा मारे गये शत्रु राजाओं की स्त्रियों की नई ढंग की सजावट ( नये ढंग का श्रृङ्गार ) दिखाई देती है। उनके नेत्रों
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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