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________________ १५० कुवलयानन्दः श्वासान्स वर्षत्यधिकं पुनर्यद्धयानात्तव त्वन्मयतामवाप्य ॥ विरुद्धमिति विशेषणाद्यत्र कार्यहेत्वोभिन्नदेशत्वं न विरुद्धं तत्र नासङ्गतिः । यथा भ्रचापवल्ली सुमुखी यावन्नयति वक्रताम् । तावत्कटाक्षविशिखैभिद्यते हृदयं मम ॥ ८५॥ मनोरथ की सीढियों पर बहुत दूर तक सदा चढ़ा करती हो। वह नल तुम्हारे ध्यान से तुम्हारा ही स्वरूप प्राप्त कर (जैसे कोई भक्त इष्ट देवता का ध्यान कर तन्मय हो जाता है वैसे ही) अत्यधिक निश्वास छोड़ा करता है। (यहां सोपानतति पर दमयंती चढ़ रही है, पर नल थकावट के कारण निःश्वास छोड़ रहा है, यह कार्यकारण की भिन्नदेशता है। श्रीहर्ष ने इस असंगति का समाधान इस पद्य में यों निबद्ध कर दिया हैः-'ध्यानात्तव त्वन्मयतामवाप्य' अर्थात् नल दमयन्ती का ध्यान करते-करते दमयंतीमय-दमयंती ही-बन गया है, फलतः संकल्पसोपानतति पर चढ़ने की थकावट जो लंबी सीढ़ियों पर चढने वाली दमयन्ती को होनी चाहिए, नल को भी होने लगी है। इस प्रकार कवि ने असंगति के समाधान का निबंधन कर असंगति अलंकार की चारुता में चार चांद लगा दिये हैं। इसीलिए तो अप्पय दीक्षित ने कहा है-'क्वचिदसांगत्यसमाधाननिबंधनेन चारुतातिशयः।) ___हमने ऊपर की कारिका के परिभाषा वाले अंश में 'कार्यहेत्वोः भिन्न देशत्वं' के साथ 'विरुद्धं' विशेषण दिया है इसका भाव यह है कि जहाँ कार्य तथा कारण की भिन्नदेशता विरुद्ध पड़ती है (जहां उन्हें एक जगह होना चाहिए), और वे एक साथ नहीं हैं, वहीं असंगति अलंकार होगा। जहां कार्य तथा कारण का भिन्नदेश में रहना विरुद्ध नहीं होता, अपितु जहां कारण तथा कार्य स्वभावतः ही अलग-अलग स्थानों पर अवस्थित रहते हैं, वहां असंगति नहीं होगी। उदाहरण के लिए निम्न पद्य में कारण तथा कार्य स्वभावतः ही भिन्न देश हैं, अतः यहां उनकी भिन्नदेशता असंगति का कारण नहीं बनेगी। यथा___ ज्योंही वह सुंदरी अपने भौंहों के धनुष को टेढा करती है, त्योंही मेरा हृदय कटाक्षरूपी बाणों से बिध जाता है। (यद्यपि यहां भू-धनुष का टेढा करना रूप कारण और कटाक्ष बाणों से हृदय का बिधना रूप कार्य की भिन्नदेशता वर्णित है, तथापि यह भिन्नदेशता स्वाभाविक ही है, विरुद्ध नहीं, क्योंकि लोक में भी धनुप कोई और टेढा करता है, बाण किसी और को बेधता है, अतः यहां असंगति अलंकार मानने की भूल नहीं करनी चाहिए। इस उदाहरण में केवल रूपक अलंकार ही है।) टिप्पणी-रसिकरंजनीकार ने बताया है कि जिन दो वस्तुओं के सामानाधिकरण्य या वैयधिकर ण्य के कारण कार्यकारणभाव पाया जाता है, उनके सामानाधिकरण्य या वैयधिकरण्य का परिवर्तन कर देने पर असंगति अलंकार होता है। उपर्युक्त उदाहरणों में सामानाधिकरण्य रूप से विषपान तथा मूच्छित होना रूप आदि कार्यकारणभाव प्रसिद्ध है, अतः यहाँ सामानाधिकरण्य के विपर्यास वाली असंगति पाई जाती है । वैयधिकरण्य के विपर्यास वाली असंगति का उदाहरण निम्न है : न संयतस्तस्य बभूव रक्षितुर्विसर्जयेद्यं सुतजन्महर्षितः। ऋणाभिधानात्स्वयमेव केवलं तदा पितृणां मुमुचे स बन्धनात् ॥
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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