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________________ अलङ्कार और भाषा 1 [ ७८५ उसके मुख के समान सुन्दर है (उपमेयोपमा), उसका मुख कमल से भी अधिक सुन्दर है (व्यतिरेक), कमल उसके मुख- सा सुन्दर है ( प्रतीप), यह मुख नहीं, कमल है ( अपह्न ुति), उसका मुख रूपी कमल देखो ( रूपक), उसके मुख को कमल समझ कर उसके पास भौंरे मँडरा रहे हैं (भ्रम), यह मुख है कि कमल ( सन्देह) आदि । इन सभी उक्तियों में कमल और मुख का सादृश्य विवक्षित है; पर अर्थ की दृष्टि से विचार करने पर एक उक्ति का अर्थ दूसरी उक्ति से कुछ विशिष्ट अवश्य है । उदाहरणार्थ, उपमा के उदाहरण में मुख और कमल का सादृश्य- मात्र विवक्षित है; पर उपमेयोपमा के उदाहरण में दोनों के पारस्परिक सादृश्य की विवक्षा के साथ ही तृतीय वस्तु के सादृश्य-निषेध की भी विवक्षा है । मुख कमल के समान सुन्दर है - यह कथन मुख के अन्य उपमान का निषेध नहीं करता; पर मुख कमल के समान है और कमल उस मुख के समान, इस कथन का तात्पर्य यह होता है कि इन दोनों वस्तुओं के अतिरिक्त कोई अन्य वस्तु मुख के समान नहीं है । व्यतिरेक के उदाहरण में सौदर्य के प्रतिमान से भी वर्ण्य मुख के सौन्दर्याधिक्य की विवक्षा है । अत: उपमा वह इस दृष्टि से भिन्न है कि जहाँ उनमा में वर्ण्य का उपमान से सादृश्य- मात्र विवक्षित रहता है, वहाँ व्यतिरेक में उसका आधिक्य उक्त रहता है । प्रतीप में उलटकर प्रस्तुत वस्तु को ही उपमान और अप्रस्तुत को उपमेय बना दिया जाता है । इसमें भी वर्ण्य का गुणाधिक्य प्रतीत होता है, क्योंकि उपमान में गुणाधिक्य की धारणा निहित रहती है । व्यतिरेक की तरह प्रतीप में वर्ण्य के गुणाधिक्य का प्रत्यक्ष निर्देश नहीं होता, फिर भी गुणाधिक्य की प्रतीति हो जाती है । उपमा और रूपक के उक्त उदाहरणों पर विचार करने से दोनों का यह भेद स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ उनमा में मुख और कमल का भेद तथा सौन्दर्य की दृष्टि से अभेद; दोनों की तुल्य प्रधानता है, वहाँ रूपक के उदाहरण में मुख और कमल में भेद होने पर भी मुख पर कमल का आरोप हो जाने से अभेद की प्रधाता हो गयी है । सन्देह के उदाहरण में दो वस्तुओं का सादृश्य अनिश्चयात्मक द्वं कोटिक ज्ञान के रूप में दिखाया गया है तो भ्रान्तिमान् के उदाहरण में सादृश्यातिशय का बोध मुख में तद्भिन्न वस्तु (कमल) के एककोटिक निश्चयात्मक ज्ञान के रूप में दिखाया गया है । सभी उक्तिभङ्गियों का पारस्परिक अर्थ भेद भाषाशास्त्रीय अध्ययन की रोचक सामग्री है । हमने विभिन्न आलङ्कारिक उक्तिभङ्गियों की पारस्परिक सूक्ष्म भिन्नता पर स्वतन्त्र अध्याय में विचार किया है । ५०
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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