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________________ ५६२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण रुय्यक ने मम्मट के चारो परिसंख्या-भेदों को स्वीकार किया है। उनकी 'परिसंख्या-परिभाषा अपेक्षाकृत अधिक सरल है। उन्होंने कहा है कि एक वस्तु की अनेकत्र प्राप्ति होने पर उसका एकत्र नियमन परिसंख्या है।' एकत्र नियमन से ही अपरत्र उसका निषेध प्रतीत होता है; कहीं-कहीं निषेध वाच्य भी होता है। स्पष्ट है कि मम्मट और रुय्यक की परिसंख्या-धारणा समान है। विश्वनाथ ने भी इसी मान्यता को स्वीकार किया है। अप्पय्य दीक्षित ने निषेध के शाब्द और आर्थ होने के आधार पर परिसंख्या के दो भेद माने हैं। पृष्ट-अपृष्ट का उल्लेख उनकी परिभाषा में नहीं है। दोनों उदाहरण अपृष्ट के ही दिये गये हैं। परिसंख्या के सम्बन्ध में उनकी मूल धारणा पूर्ववर्ती आचार्यों की धारणा से अभिन्न है। एक वस्तु का निषेध कर दूसरे ( आधार ) में वस्तु के नियमन को वे भी परिसंख्या का लक्षण मानते हैं। पण्डितराज जगन्नाथ ने मम्मट, रुय्यक आदि की तरह परिसंख्या के चार भेद स्वीकार किये हैं—प्रश्नपूर्वक, तथा अप्रश्नपूर्वक परिसंख्या-भेदों के शाब्द निषेध और आर्थ निषेध-भेद । परिसंख्या का सामान्य स्वरूप भी उन्होंने पूर्ववर्ती आचार्यों के मतानुसार ही दिया है। निष्कर्ष यह कि परिसंख्या के उक्त चार भेद बहुमान्य हैं। उसके इस सामान्य रूप को मानने में सभी आचार्य एकमत हैं कि अनेकत्र समान रूप से प्राप्त वस्तु का एकत्र स्थापन तथा अन्यत्र शाब्द या प्रतीयमान निषेध परिसंख्या है। मालादीपक मालादीपक के स्वरूप पर दीपक से स्वतन्त्र रूप में विचार होता रहा है। उपमा, रूपक आदि अनेक अलङ्कारों के माला-रूप की कल्पना उसके भेद के रूप में होती रही है; पर मालादीपक ने दीपक से अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बना लिया है। इसका मूल तत्त्व दीपक से निश्चय ही अभिन्न है। १. एकस्यानेकत्रप्राप्तावेकत्र नियमनं परिसंख्या । -रुय्यक, अलङ्कार सू० ६२ २. परिसंख्या निषिध्यकमेकस्मिन्वस्तुयन्त्रणम् । -अप्पय्यदी० कुवलया० ११३ ३. द्रष्टव्य-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर पृ० ७६५-६६ ..
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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