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________________ भूमिका काव्य-सौन्दर्य की अभिवृद्धि करने वाले अलङ्कार का अध्ययन-विश्लेषण भारतीय काव्यशास्त्रीय चिन्तन का प्रधान अङ्ग रहा है । अलङ्कार प्रस्थान में तो काव्यालङ्कार को काव्य-तत्त्वों में मूर्धन्य माना ही गया, अलङ्कारेतर प्रस्थानों में भी उसका महत्त्व किसी न किसी रूप में स्वीकृत हुआ है । रीतिप्रस्थान के प्रबल प्रतिष्ठाता वामन ने औपम्यमूलक अलङ्कारों के स्वरूप का विवेचन किया । ध्वनिवादी आचार्य आनन्दवर्धन ने अपृथग्यत्ननिर्वर्त्य अलङ्कारों को ध्वनि - काव्य में उपादेय माना । वक्रोक्तिवादी कुन्तक ने न केवल कुछ अलङ्कारों के स्वरूप का निरूपण किया वरन् अलङ्कार और अलङ्कार्य के भेदाभेद के प्रश्न का सूक्ष्म विवेचन कर उसका युक्तिसङ्गत समाधान निकाला । रस- सिद्धान्त के प्रवर्तक भरत से लेकर विश्वनाथ आदि रसवादी आचार्यों की रचनाओं में अलङ्कारों का स्वरूप - विश्लेषण होता रहा है । ध्वनिsवंस - प्रस्थान के प्रतिष्ठाता महिम भट्ट ने भी काव्य-वस्तु में उत्कर्ष या अपकर्ष की प्रतिष्ठा के लिए अलङ्कार की उपादेयता स्वीकार की । अलङ्कारवादी जयदेव आदि ने तो अलङ्कार के अभाव में काव्यत्व की कल्पना को ही शीतल अनल की कल्पना की तरह असङ्गत मान लिया । विभिन्न काव्य-तत्त्वों भारतीय साहित्यशास्त्र में जितना ऊहापोह अलङ्कार के सम्बन्ध में हुआ है, उतना किसी दूसरे काव्य-तत्त्व के सम्बन्ध में नहीं । का विवेचन - विश्लेषण करने वाले आचार्यों ने भी अपने ग्रन्थ के एक-दो प्रकरणों में काव्यालङ्कार के स्वरूप का निरूपण किया है, अनेक आचार्यों ने केवल अलङ्कार पर स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना की है । अलङ्कार के इस महत्त्व का रहस्य यह है कि वे उक्ति के प्रभाव की वृद्धि में सहायक होते हैं। मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह अपनी उक्ति को अधिकाधिक प्रभावोत्पादक बनाकर प्रस्तुत करना चाहता है। इस उद्देश्य से काव्य-भाषा में ही नहीं, लोक भाषा में भी अनेक अलङ्कारों का
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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