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________________ जिनेश्वरों ने यद्यपि एकान्तविधि और एकान्तनिषेध किसी बात का नहीं निरूपण किया और शरीरशक्ति प्रमाणे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, चतुष्टयी के अनुसार प्रवृत्ति करने की आज्ञा दी है। और पर्षद में बैठकर उपदेश दिया है कि-'माया को छोड़ो! जहाँ तक निष्कपट भाव नहीं रखोगे वहाँ तक भला नहीं हो सकेगा। मल्लिजिनेन्द्र ने अपने पूर्वभव में कपट से तप किया जिससे उन्हें स्त्रीगोत्र बाँधना पड़ा, अतः कपट करना बहुत बुरा है' माया नरक कुण्ड में जाने के लिए सीढ़ी के समान है, स्वर्ग और अपवर्ग के सुखों को जलाने के लिए दावानल है, ज्ञानेन्दु को ढाँकने में राहु के समान है और सुकृतवल्ली को काटने के लिये कुठार (कुहाड़ी) है। कुडिलगई कुरमई, सयाचरणवजिओ मल्लिणो। मायावी नरोभुअगव्व, दिमत्तो वि भयजणओ।। भावार्थ-मायावी पुरुष वक्रगति वाला, क्रूर (दुष्ट) बुद्धिवाला, सदाचरण से वर्जित अर्थात उत्तम आचार से रहित, मलिन हृदय वाला और सर्प की तरह देखने मात्र से भय उत्पन्न करने वाला होता है। मायावी लोग ऊपर से प्रसन्नवदन और मधुर वचन बोलने वाले होते हैं किन्तु उनके हृदय में प्रतिक्षण माया रूप कतरनी चला करती है। भादों में चीभड़ा और जुआर के छोड़ देखने में अत्यन्त सुन्दर मालूम होते हैं परन्तु जब पशुओं (ढोरों) के खाने में आ जाते हैं तो उनके शरीर में 'मीणा' रोग पैदा कर मरण के शरण बना डालते हैं उसी प्रकार मायावी पुरुष भी अपना ऊपरी व्यवहार बता कर लोगों को फन्दे में डाल देते हैं और मरण तुल्य बना देते हैं। दंभी लोग गुणी जनों का किसी समय कुछ छिद्र पाकर उसको विस्तार कर उनका अपवाद उडाने में चतुर हुआ करते हैं, और मायावी सत्य के तो शत्रु होते हैं, जैसे भोजन के साथ खाई गई मक्खी खुद प्राणभ्रष्ट हो कर खाने वाले को भी वान्त (वमन) कराये बिना नहीं रहती, इसी तरह मायावी खुद धर्मभ्रष्ट हो कर दूसरों को भी धर्म से वेमुख बना डालते हैं। अतः गुणसंपत्ति की चाहना रखने वाले महानुभावों को माया (कपट) और मायावी लोगों का समागम सर्वथा त्याग करना चाहिए। ८८ श्री गुणानुरागकुलक
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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