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________________ अनुभव अनेक बार कर चुका है। इसलिये संसार में धिक्कार के लायक एक भी प्राणी नहीं है, जो लोग अहङ्कार में निमग्न रहते हैं वे अपने पूर्वभवों का मनन नहीं करते, नहीं तो उन्हें अभिमान करने की आवश्यकता ही न पड़े। शास्त्रकारों ने मान की महीधर के साथ तुलना की है। पर्वत में जिस प्रकार ऊँचे-ऊँचे शिखर होते हैं वे आड़े आ जाने से दुरवलम्ब हो जाते हैं, उसी प्रकार मान महीधर के भी अष्टमद रूप आठ ऊँचे ऊँचे शिखर हैं वे मनुष्यों के निज गुणों का विकास नहीं होने देते, और सद्गुण की प्राप्ति में अन्तरायभूत होते हैं। जिस प्रकार हाथी मदोन्मत्त होकर आलानस्तम्भ को और सघन साँकल को छिन्न-भिन्न करते देर नहीं करता, उसी प्रकार अभिमानी मनुष्य भी शमतारूप आलान-स्तंभ को और निर्मल बुद्धिरूप साँकल को तोड़ देता है। मानी पुरुषों के हृदय में सदबुद्धि पैदा नहीं होती, क्योंकि अभिमान के प्रभाव से ज्ञानचक्षु आच्छादित रहते हैं, इससे उच्चदशा का सर्वथा विनाश हो जाता है। जो महानुभाव अहंकार के कारण सारी दुनिया में नहीं समाते वे भी बेंतभर (अल्पतर) कमरे में समाते देर नहीं करते। अत एव जो सत्पुरुष मान को छोड़ कर विनय गुण का अवलंबन करेंगे वे अनेक सद्गुणों और अनुपम लीला के भाजन बनेंगे। माया और उसका त्यागमाया एक ऐसा निन्दनीय दुर्गुण है जो बनी बनाई बात पर पानी फेर देता है, और लोगों में अविश्वासी बना कर लज्जास्पद कर देता है। वस्त्र त्याग कर जन्म पर्यन्त नग्न रहो, केशलुञ्चन करते रहो, जटाधारी बन जाओ, भूमि पर या लोहे के कीलों पर शयन नित्य करते रहो, अनेक प्रकार के व्रत प्रत्याख्यान करके शरीर का शोषण कर डालो, सकल शास्त्रों में पारगामी हो जाओ, ध्यान में स्थित रह कर वर्षों तक बैठे रहो, मौनमुद्रा धारन कर लो, परन्तु जब तक हृदयभवन से कपटरूप दावानल नष्ट नहीं हुआ तब तक पूर्वोक्त एक भी क्रिया फलदायक नहीं हो सकती। क्योंकि आचार्य हो या उपाध्याय, योगी हो या संन्यासी, साधु हो या गृहस्थ, क्रिपापात्र हो या शिथिलाचारी, पंडित हो या मूर्ख, माया जाल तो सब के लिए दुःखदायक और मुक्तिमार्ग निरोधक ही है। श्री गुणानुरागकुलक ८७
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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