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________________ लब्धिख्यात्यर्थिना तुझ्या दुस्थितेन महात्मनः छलजातिप्रधानो यः, स विवाद इति स्मृतः ।।४। भावार्थ- सुवर्ण आदि का लोभी, कीर्ति को चाहनेवाला, दुर्जन अर्थात् — खीजने वाला - चिढ़ने वाला, और उदारता रहित पुरुषों के साथ छल अथवा जाति नामक वाद करना 'विवाद' कहलाता है। इस प्रकार छल, जाति (दूषणाभास) आदि के बिना किये हुए वाद में तत्त्ववादी को विजय प्राप्त होना मुश्किल है। जो कदाचित् विजय भी प्राप्त हुआ तो पूर्वोक्त वादियों को धर्म का बोध नहीं होता किन्तु उलटा रागद्वेष बढ़ कर आत्मा क्लेशों के वशीभूत होता है। परस्पर एक दूसरों के दोषों को देखते हुए निन्दा या मानभंग होने के सिवाय कुछ भी तत्त्व नहीं पा सकते, इससे यह वाद भी अन्तराय आदि दोषों का उत्पादक और यश का घातक है। परलोकप्रधानेन, स्वशास्त्रज्ञाततत्त्वेन, मध्यस्थेन तु धर्मवाद भावार्थ-परलोक को प्रधान रूप से मानने वाला, मध्यस्थ, बुद्धिमान और अपने शास्त्र का रहस्य जानने वाला तथा तत्त्वगवेषी के साथ में वाद करना उसका नाम 'धर्मवाद' है, क्योंकि परलोक को मानने वाला पुरुष दुर्गति होने के भय से वाद करते समय अयुक्त नहीं बोलता, किन्तु मध्यस्थ (सब धर्मों की सत्यता पर समान बुद्धि रखने वाला) पुरुष गुण और दोष का ज्ञाता होने से असत्य का पक्षपाती नहीं बनता । एवं बुद्धिवान् — धर्म, अधर्म, सद्मसद् आदि का निर्णय स्वबुद्धि के बल से भले प्रकार कर सकता है; इसी तरह स्वशास्त्रज्ञ पुरुष धर्मवाद में दूषित और अदूषित धर्मों की आलोचना (विचार) कर सकता है। इससे इन वादियों के साथ धर्मवाद करने से विचार की सफलता न्याय पूर्वक होती है । धीमता । उदाहृतः ।। ६ ।। धर्मवाद में मुख्यतया ऐसी बातों का विषय रहना चाहिये कि जिससे किसी मजहब को बाधा न पहुँचे, अर्थात् — जिस वात को सब कोई मान्य करें । उनमें अपेक्षा या नामान्तर भले रहे, परन्तु मन्तव्य में भेद नहीं रहना चाहिये अथवा किसी कारण से मत पक्ष में निमग्न हो, जो कोई मान्य न करे परन्तु युक्ति और प्रमाणों के द्वारा उनका खण्डन भी न कर सके। जैसे- लिखा है कि श्री गुणानुरागकुलक ३३
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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