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________________ पाठक महोदय ! थोड़ासा अपना ध्यान इधर आकर्षित कीजिये कि—गुणानुराग की महिमा कितनी प्रबल है, जिसके प्रभाव से गुणानुरागी पुरुष की इन्द्र भी नम्रभाव से आश्चर्य पूर्वक स्तुति करते हैं और अनेक दिव्य वस्तुओं की प्राप्ति होती है। ___ क्योंकि गुणानुरागी पुरुष अमत्सरी होता है। इससे वह किसी की निन्दा नहीं करता और मधुर वचनों से सब के साथ व्यवहार करता है। अपना अहित करने पर भी किसी के साथ विगाड़ करना नहीं चाहता और न किसी का मर्मोद्घाटन करता है, इसी से वह चुगली, तथा दुर्जन की संगति आदि सदोष मार्गों से विलकुल सम्बन्ध नहीं रखता हुआ धार्मिक विचार में भी विवाद और शुष्कवाद को सर्वथा छोड़ कर न्यायपूर्वक प्रवृत्त होता है। वादत्रिपुटी तीनों वादों का स्वरूप जो श्रीमान् 'श्रीहरिभद्रसूरिजी' महाराज ने स्वकृत 'अष्टक' (अध्यात्मसार) में निरूपण किया है। वही यहाँ प्रसङ्ग वश से दिखाया जाता हैअत्यन्तमानिना सार्द्ध, क्रूरचित्तेन च दृढम् । धर्मीद्वष्टेन मूढेन, शुष्कवादस्तपस्विनः।।२।। भावार्थ-जो अत्यन्त अभिमानी, दुष्ट अध्यवसाय वाला धर्म का द्वेषी, और युक्त अयुक्त के विचार से शून्य (मूख) पुरुष हैं, उनके साथ तपस्वी को वाद करना वह 'शुष्कवाद' कहलाता है। अर्थात् यह वाद अनर्थ का कारण है; क्योंकि इस वाद में खाली कण्ठशोष के अतिरिक्त कुछ भी सत्याऽसत्य का निर्णय नहीं होता प्रत्युत्त वैर विरोध बढ़ता है, इसी से संजमघात, आत्मघात और धर्म की लघुता आदि दोषों का उन्दव होकर संसार वृद्धि होती है। अर्थात्-वाद करते समय अभिमानी अगर हार गया तो अभिमान के कारण आत्मघात करेगा, अथवा मन में वैरभाव रख कर जिससे हार गया है उसका घात करेगा या उसके धर्म की निन्दा करेगा। यदि गुणानुरागी (तपस्वी साधु) अभिमानी आदि से पराजित हो गया तो संसार में निन्दा का पात्र बनेगा और अपने धर्म की अवनति करावेगा। इससे ऐसा वाद परमार्थ से हानिकारक ही है। ३२ श्री गुणानुरागकुलक
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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