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________________ श्री जिनहर्षगणिजी म.सा. हैं, जिन्होंने जीवनपर्यन्त कठिन साधना के बल पर 'गुणानुरागकुलक' में मूल स्थिति का निर्माण किया है। इस ग्रन्थ की महत्ता को स्वीकार करते हुए मेरे पूज्य गुरुदेव प्रातःस्मरणीय श्रीमद् विजययतीन्द्र सूरीश्वर जी म.सा. ने विद्वत्तापूर्ण विवेचन प्रस्तुत कर अपने विशाल चिन्तन एवं मनन में ऐक्य स्थापित करते हुए इसे सर्वजनहिताय प्रस्तुत किया है। यह प्रस्तुतीकरण सम्पूर्ण मानव-जगत् पर महत्तम उपकार है, ऐसा समझा जाना चाहिए। वि. सं. १६६८ में पूज्य गुरुदेव के निर्देश पर इसका प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ था। ग्रन्थ के प्रकाश में आते ही इसका पठन-पाठन, तदनुरूप चिन्तन एवं अनुसरण प्रभावी हो गया था जिससे अनेकानेक सज्जनों के भटके हुए जीवन-क्रम में एक नई चेतना का प्रवाह देखा गया था। तब से लेकर अब तक अनगिनत मुमुक्षुओं ने इस ग्रन्थराज को दैनिक दिनचर्या में नित्य पठन-पाठन का अंग बनाया है। प्रथम संस्करण की प्रतियाँ शीघ्र ही समाप्त हो गई थीं, तथा बार-बार यह विचार किया जाता रहा कि शीघ्र ही इसका द्वितीय संस्करण प्रकाशित कराया जावे, किन्तु अनेकानेक ज्ञात एवं अज्ञात कारणों से अध्यावधि यह कार्य सम्भव नहीं हो सका, किन्तु शीघ्र प्रकाशित कराने का विचार कभी त्यागा भी नहीं गया। यह एक सुखद अवसर है कि जब इसका द्वितीय संस्करण ऑफसैट मुद्रण प्रणाली से उत्कृष्ट साज-सज्जा से करवा कर गुणानुरागी पाठकों के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है। इस द्वितीय संस्करण को प्रकाशित कराने में मेरा प्रकाशनोपदेश तब सार्थक सिद्ध होगा जब सुविज्ञ पाठक गुणानुरागी बनने का अथक सार्थक प्रयास करेंगे। मुझे आत्मविश्वास है कि मेरा विश्वास खण्डित नहीं होगा, क्योंकि सद्प्रयास कभी भी निष्फल नहीं होते। सदैव याद रखें, गुण, गुणी को श्रेष्ठ पद का अधिकारी बनाता है। गुणानुरागी व्यक्ति ही गुणग्राही हो सकता है और गुणानुरागी व्यक्ति ही अवगुणों के बन्धन से मुक्त हो सकता है। इसी प्रकार के अनेकानेक दिशा-निर्देशों का यह अद्वितीय ग्रन्थ आपके हाथों में है। देखना यह है कि आप इसे अपने जीवन की धारा को मोड़ते हुए कितना गुणग्राही मानते हैं। द्वितीय संस्करण के प्रकाशन में सुकृत सहयोगीजनों का अन्तर्मन से आभार मानते हुए तथा मुद्रण प्रक्रिया का सम्पूर्ण भार वहन करने वाले परम गुरुभक्त भाई श्री फतहसिंह जी लोढ़ा, संचालक, यतीन्द्र साहित्य सदन, भीलवाड़ा को मेरा हार्दिक आशीर्वाद है कि जिनके प्रयासों से यह प्रकाशन शीघ्र सम्भव हो सका। मैं पुनः आश्वस्त हूँ कि मेरे पाठकों के प्रति बने विचार यथावत रहेंगे और वे इस ग्रन्थ को नित्य पठन-पाठन के लिए आवश्यक समझ कर तदनुरूप अनुसरण करने में प्रवृत्त होंगे। इति विस्तरेण। श्री कोरटाजी तीर्थ [पाली] पौष वदी २, वि.सं. २०५३ दिनांक २६-१२-१६६६ hem ख भी days
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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