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________________ अन्तर्मन से कर्म के क्रम से ग्रथित होता आया है यह संसार, अनुक्रम से चलता रहा है यह संसार! रात और दिन एक क्रम में हैं, तो प्रकाश और अन्धकार भी अपना-अपना दायित्व निभा रहे हैं। एक ओर सज्जनता प्रभावित है तो दूसरी ओर दुर्जनता अविरल गति से चलायमान हो रही है। एक ओर सद्गुणों का अपना साम्राज्य अनादिकाल से चला आ रहा है तो दूसरी ओर दुर्गुणों का आधिपत्य कभी समाप्त न होने की श्रेणी में आ खड़ा हुआ है। बड़ा विषमतापूर्ण यह संसार-चक्र अनन्त-अनन्त काल से चलता रहा है और चलता रहेगा। एक ओर सुगन्ध से संसार सुवासित हो रहा है तो दूसरी ओर दुर्गन्ध से सुगन्ध की सुवास को समाप्त करने की चेष्टा तीव्रता से की जा रही है। यह सब देख कर, सोच कर और मनन कर के ही ज्ञानियों को किंकर्तव्यविमूढ़ होना पड़ता है। किन्तु यह सोचकर कि यह तो चल-चला-चल विश्व का दर्शन है, सन्तोष करना पड़ता है। ऐसी दुविधापूर्ण स्थितियों में जीवन की विधा को कैसे पार लगाया जाए यह सारा का सारा उपक्रम निर्भर करता है व्यक्ति के अपने मन पर। मनुष्य इस धरा का ऐसा अलौकिक प्राणी है कि जिसके पास इच्छा शक्ति का ऐसा विपुल भण्डार है, जिससे वह मन, वचन और कर्म के वेग को जिधर चाहे मोड़ सकता है। इस संसार में हर कोई अपनी ही धुन में चलता रहता है, न वह किसी की सुनता है और न ही किसी की मानता है, किन्तु सद्गुणों से निर्मित इच्छा शक्ति का मानव-मन कभी भी गतिभ्रम नहीं होता। भ्रमित चित्त का व्यक्ति सद्गुणों के अभाव में अपना स्वरूप समझ नहीं पाता है और बेसमझ बन कर जीव, जीवन्त स्थिति के चिन्तन से सर्वथा दूर से दूर होता चला जाता है, यही गति-भ्रम मनुष्य को मनुष्य-जीवन से दूर कर देता है। अंधकार में भटकने वाले जीव को प्रकाश उपकारी होता है एवम् दुर्गुणग्रस्त व्यक्ति को सद्गुण, सलुणास्वरूप प्रदान कर सकता है। 'सद्गुण' व्यक्ति की श्रेष्ठतम सम्पत्ति है जो विपत्तियों में संरक्षण देती है वहीं सद्गुणों की सुवास जीवन-कमल को महका कर श्रेष्ठ मानव का श्रेय प्रदान करने में सक्षम होती है। सद्गुणों का ग्रहण करना कोई कठिन कार्य नहीं है, यह तो नियमित जीवन-प्रवाह की महत्तम साधना है। इसी साधना के बल पर मनुष्य अनादिकाल से डेरे डाल कर बैठे हुए दुर्गुणों का निष्कासन करने में सफल होता है। भावों को विभावों अथवा दुर्भावों में बदलने वाले काशायिक परिणामों का जब तक प्रतिवाद नहीं किया जाता है अथवा प्रतिकार नहीं किया जाता है तथा उनकी सम्पूर्ण निरजरा नहीं की जाती है, तब तक मानवीयता स्थिर नहीं हो सकती है। प्रस्तुत ग्रन्थ उन्हीं सद्गुणप्रदायिनी संजीवनी विधाओं से परिपूर्ण है। यह ग्रन्थ मनुष्य को जीने की कला सिखाता है। जीवन को सार्थक बनाकर इस भव से परभव को श्रेष्ठ बनाने का निर्देश देने का अथक प्रयास ही नहीं करता वरन् झंझावातों के समय में अडिग रहने का निर्देश भी देता है। इस ग्रन्थ की महत्ता एवं उपादेयता अद्वितीय है। सम्यक् दृष्टि प्रदायक इस ग्रन्थ के मूल लेखक
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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