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________________ 'कृतसङ्गः सदाचारै-र्मातापित्रोश्च पूजकः । त्यजन्नुपप्लुतस्थान-मप्रवृत्तश्च गर्हिते ।।४।।' भावार्थ-८, उत्तम आचार वाले सत्पुरुषों का समागम करना। अर्थात् सामान्यतः जुआरी, धूर्त, दुराचारी, भट्ट, याचक, भांड, नट, तथा लौकिक में धोबी, माली, कुंभार प्रमुख की संगति धर्मिष्ठ पुरुषों को अहितकारक है। आजकल कई एक वेषधारी साधु और साध्वियाँ नीच जाति के मनुष्यों को साथ में रखते हैं, जिससे उसका परिणाम भयङ्कर निवड़ता है। क्योंकि गृहस्थों को भी जब अधम मनुष्यों की संगति करना मना है तो फिर साधुओं के लिये तो कहना ही क्या है ?| नीच पुरुषों की सोबत करने वाले साधुओं का आदर सत्कार करने वाला गृहस्थ भी पाप का पोषक है, अतएव सत्संग करने वाला पुरुष धर्म के योग्य होता है। ६, 'मातापित्रोश्च पूजकः'-माता पिताओं की पूजा करने वाला गृहस्थ धर्म के योग्य है। अर्थात् संसार में माता पिताओं का उपकार सबसे अधिक है, अतएव उनकी सेवा तन, मन और धन से करना चाहिये। क्योंकि दश उपाध्याय की अपेक्षा एक आचार्य, सौ आचार्य की अपेक्षा एक पिता, और हजार पिता की अपेक्षा एक माता पूज्य है। इसलिये हर एक कार्य में माता-पिताओं की रुचि के अनुसार वर्तनेवाला पुरुष सद्गुणी बन सकता है। ___ १0, 'त्यजन्नुपप्लुतस्थानम्'-उपद्रव वाले स्थान का त्याग करने वाला पुरुष धर्म के लायक होता है। इससे स्वचक्र परचक्रादि उपद्रव, तथा दुर्भिक्ष, प्लेग, मारी आदि और जन विरोध आदि से रहित स्थान में रहना चाहिये। उपद्रवयुक्त स्थान में रहने से अकाल मृत्यु धर्म और अर्थ का नाश होने की संभावना है, और धर्म साधन भी बनना कठिन है। ११, 'अप्रवृत्तिश्च गर्हिते' अर्थात निन्दनीय कर्म में प्रवृत्ति नहीं करना चाहिये। देश, जाति और कुल की अपेक्षा से निन्दनीय कर्म तीन प्रकार के होते हैं जैसे सौ वीर देश में कृषि कर्म, लाट में मद्यपान निन्दनीय है। जाति की अपेक्षा से ब्राह्मणों को सुरापान, तिल लवणाऽऽदि का व्यापार, और कुल की अपेक्षा से चौलुक्य वंशी राजाओं को मद्यपानादि निन्दनीय है। इत्यादि निन्दनीय कार्य करने श्री गुणानुरागकुलक १३६
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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