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________________ साथ विरोध बढ़ता है, और विरोध बढ़ने से चित्त की व्यवस्था ठीक नहीं रहती, जिससे धार्मिक साधना में चित्त की स्थिरता नहीं रहती। अतएव देशाचार का पालन करने में दत्तचित्त रहने वाला पुरुष ही सद्गुणी बन सकता है। ६, 'अवर्णवादी न क्वापि, राजादिषु विशेषतः।' अर्थात् नीच से लेकर उत्तम मनुष्य पर्यन्त किसी की भी निन्दा नहीं करना चाहिए, क्योंकि निन्दा करने वाला मनुष्य संसार में निन्दक के नाम से प्रख्यात होता है, और भारी कर्मबन्धन से भवान्तर में दुःखी होता है। सामान्य पुरुषों की निन्दा से भी नरकादि कुगतियों की प्राप्ती होती है। तो उत्तम पुरुषों की निन्दा दुःखदायक हो इसमें कहना ही क्या है ?| राजा, अमात्य, पुरोहित आदि की निन्दा तो बिलकुल त्याज्य ही है, क्योंकि इनकी निन्दा करने से तो प्रत्यक्ष द्रव्यनाश प्राणनाश और लोकविडम्बना होती दीख पड़ती है, अतः किसी का अवर्णवाद न बोलना चाहिए, अगर निन्दा करने का ही अभ्यास हो तो अपने दुष्कृतों की निन्दा करना सर्वोत्तम और लाभदायक है। अनतिव्यक्तगुप्ते च, स्थाने सुप्रातिवेश्मिकः । अनेकनिर्गमद्वार - विवर्जितनिकेतनः ।।३।। ____ भावार्थ–७, अनेक द्वारों से रहित घरवाला गृहस्थ सुखी रहता है। अनेक द्वारों के निषेध से परिमित द्वार वाले घर में रहने का निश्चय होता है, क्योंकि ऐसे घरों में निवास करने से चौरादि का भय नहीं रह सकता। यदि घर में अनेक द्वार हों तो दुष्टलोगों के उपद्रव होने की संभावना है, तथा अतिव्यक्त और अतिगुप्त भी न होना चाहिए। जो अतिव्यक्त घर होगा तो चोरों का उपद्रव होगा, यदि अतिगुप्त होगा तो घर की शोभा मारी जायेगी, तथा अग्नि वगैरह के उपद्रव से घर को नुकसान पहुँचेगा। जहाँ सज्जन लोगों का निवास हो वहाँ रहना चाहिये, क्योंकि सज्जनों के पाड़ोस में रहने से स्त्री पुत्रादिकों के आचार-विचार सुधरते हैं। कनिष्ठ पाड़ोसियों की संगति से सन्तति के आचार-विचार बिगड़ जाते हैं। और लोक निन्दा का पात्र बनना पड़ता है। अतएव गृहस्थों के लिये अनतिव्यक्त, अगुप्त, उत्तम पाड़ोस वाला और अनेक द्वारों से रहित घर श्रेष्ठ व सुखकारक होता है। १३८ श्री गुणानुरागकुलक
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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