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________________ बलात् प्राप्त हुई दासता, या गुलामी में पटकता है, वह चौथे व्रत का अतिक्रम करता है, दया का खून करता है, और चोरी करता है।' * मन को स्त्रीसमागम से दूर रखना, स्त्रियों के साथ रागदृष्टि से बातचीत न करना, काम विकार के नेत्रों से स्त्रियों को न देखना, तथा स्त्रियों का स्पर्श न करना, ये, अथवा ब्रह्मचर्य और विवाह हुए वाद स्वस्त्री में, तथा स्त्री को स्वपति में, जो सन्तोष हो, वही 'शील' कहा जाता है। हरएक पुरुष को कौमारावस्था में अट्ठारह या बीस, तथा स्त्री को सोलह वर्ष तक तो अवश्य ब्रह्मचर्य परिपालन करना चाहिये। विवाह के अनन्तर पुरुषों को स्वदार, और स्त्रियों को स्वपति में सन्तोष व्रत धारण करना चाहिये। जहाँ पर पुरुष स्त्रियों में शीलदृढ़ता का सद्गुण होता है वहाँ निरन्तर अटूट स्नेहभाव बना रहता है, और जो पुरुष पर स्त्रियों में, तथा स्त्रियाँ पर पुरुषों में आसक्त हैं, वे अनेक जन्म तक क्लीबता, तिर्यक्योनि में उत्पत्ति दौर्भाग्य, निर्बलता और अपमान आदि विपत्तियों के पात्र बनकर दुःखी होते हैं। शीलपरिपालन से शरीर पूर्ण निरोगी और तेजस्वी बनता है, इसलिये शीलवान् विद्युत की तरह दूसरों के चित्त को अपनी तरफ खींचकर सुशील और सद्गुणी बना सकता है। संसार में जो-जो पुरुष पराक्रमी, तथा महत्कार्यकर्ता हुए हैं, वे शील के प्रभाव से ही प्रख्यात हुए हैं। स्वदार-सन्तोषी मनुष्य यदि दीक्षा लेकर भी संयोगवश विकारी होगा तो भी वह अपनी योग्यता व उत्तमता का विचार कर अकार्य में प्रवृत्त नहीं हो सकेगा, और न उसको कोई स्त्री मोहपाश में डाल सकेगी, क्योंकि वह स्त्रियों से निरन्तर बचकर रहता है। अब मध्यमपुरुषों का स्वरूप कहते हैं। ___ "पुरिसत्येसु पवइ, जो पुरिसो धम्मअत्थपमुहेसु। अन्नोन्नमवाबाहं, मज्झिमरूवो हवइ एसो ।।२१।। * जैन हितैषी भाग ११ अंक ३ पृष्ठ १७0 से उद्धृत। ** पुरुषार्थेषु प्रवर्तते, यः पुरुषों धर्मार्थप्रमुखेषु। अभ्योऽन्यमव्याबाधं, मध्यमरूपो भवत्येषः।२१। श्री गुणानुरागकुलक १२६
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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