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________________ ३८ - -तत्त्वोपनिषद्तद्विग्रहाद्यसमर्थत्वात्, स्वगौरवविलयभयाक्रान्तत्वाच्च। अम्लरसा द्राक्षा इति पलायनकृच्छृगालवत्।।१६।। अथ क्षेपोदाहरणान्येवाह - त्वमेव लोकेऽत्र मनुष्य ! पण्डितः, खलोऽयमन्यो गुरुवत्सलो जनः। स्मृतिं लभस्वारंभ नेति शोभसे, दृढश्रुतैरुच्छ्वसितुं न लभ्यते।।१७।। हे मनुष्य ! - हे प्राकृतमनुजमात्र ! इति न्यक्कारोबोधनम्। त्वन्मत्याऽखिलविश्वे त्वमेवैको विद्वान्, त्वदन्यः - अस्मत्सदृशो गुरुवत्सलः ऐसा कहकर चला गया। ___ खुद तो परीक्षा करनी नही, जो परीक्षक है उनकी अनुमोदना भी नही करनी, उनका प्रतिक्षेप करने का - उनकी बात पर पडकार करने का सामर्थ्य नहीं, स्वयं कोइ परीक्षा करने के लिये ज्ञान, सत्त्व, उद्यम, माध्यस्थ्य नहीं, फिर भी सिर तो ऊंचा ही रखना है। विद्वान से भी महान कहलाना है, इस लिये तत्त्वज्ञ परीक्षक को ही गाली देते देते वहाँ से सरक जाता है।।१६।। अब वो जो क्षेपकथा - निंदा करता है, वो कहते है - मनुष्य ! तुम ही इस विश्व में पंडित हो, यह अन्य गुरुवत्सल जन दुष्ट है (ऐसा तुम समजते हो।) स्मृति को प्राप्त करो, आरंभ करो, इस तरह नहीं शोभते हो, दृढ श्रुत के धारको के साथ साँस भी नही ले सकते।।१७।। ___ अरे ! एक आम आदमी ! तुम समजते हो के सारे संसार में तुम एक ही विद्वान हो। और जिन्हें बुझर्गों पर - पुरातनों पर वात्सल्यस्नेह आदरभाव है, ऐसे हम जैसे लोग तो तुम्हारी दृष्टि मे दुर्जन ही १. क,ख- ०केऽद्य मनु०। २. क,ख- ०रम ने०। ३. ख- ०भने।
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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