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________________ ३७ ®- तत्त्वोपनिषद् परीक्षकक्षेपमुखो निवर्तते।।१६।। विगृह्य - विग्रहं कृत्वा - तत्त्वज्ञपरीक्षकेण समं वाक्सङ्ग्रामं कृत्वा भाषितुमसमर्थः, बुधविहितपूर्वापराविरोधिप्रमाणसिद्ध-युक्तिसहं परं - परमं श्रेष्ठमिति यावत्, शास्त्रं द्रष्टुमप्यशक्तः, यद्वा परं - परीक्षकं विद्वद्गुरुकृतशोभम्- तत्सम्पादिततत्त्वज्ञतादिविभूषं द्रष्टुमप्यप्रत्यलः स्वाभिमताऽऽप्तवितीर्णगौरवोऽलीकाचार्यादिपदादिमिथ्याभिमानः परीक्षकस्य क्षेपः - निन्दा तत्प्रधानमुखोऽनवरतं तदवर्णवादं विब्रुवाणस्तत्सकाशान्निवर्तते, हुए आप्तजन से गौरव प्राप्त करके वह परीक्षक की निंदा करता हुआ वहाँ से चला जाता है।।१६।। जो तत्त्वज्ञ के साथ विग्रह करने वाणी का संग्राम करके बोलने में असमर्थ हो जाता है। विद्वानों द्वारा विहित पूर्वापर अविरुद्ध, प्रमाणों से सिद्ध, युक्तियुक्त शोभास्पद परम शास्त्र से अभिभूत होके या उससे भयभीत होके उसे देखने में भी असमर्थ हो जाता है। अथवा तो पर = परीक्षक, उसके विद्वान गुरु द्वारा उस की शोभा बनाइ जाये, अर्थात् उस को तत्त्वज्ञता आदि गुणों से अलंकृत किया जाये, उसे देखने में भी असमर्थ हो जाता है, ऐसा व्यक्ति भी अपने आप को महान समझता है, अपने माने हुए आप्त जन - बुझर्गों द्वारा उसका गौरव हुआ हो - झूठी विद्वत्ता आदि की कीर्ति मिली हो, आचार्यादि पदवी आदि रूप मान-सम्मान मिला हो, उस से वह मिथ्याभिमान रखता है तथा अक्कड रहता है। और अपनी इस असमर्थता पर पर्दा डालने के लिये उन तत्त्वज्ञ परीक्षक की निंदा करता हुआ उनके पास से भाग खडा होता है क्यूँ कि वह तत्त्वज्ञ के साथ वाद करने में असमर्थ भी है और करे तो पराजय से अपने अपयश का उसे भय भी है। बिल्कुल वैसे ही, कि जैसे अंगुर खाने में निष्फल जाने वाला लोमडी ये अंगुर तो खट्टे है,
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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