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________________ २८ -तत्त्वोपनिषद्अथ वादिवैषम्यमाविष्कुर्वन्नाह - यदग्निसाध्यं न तदम्भसा भवेत्, प्रयोगयोग्येषु किमेव चेतसा। समेष्वरागोऽस्य विशेषतो नु किं, विमृश्यतां वादिषु साधुशीलता।।१२।। न ह्यभ्यासादिसाध्यं मनसैव सिध्यतीति प्रतिवस्तूपमया दर्शितम्। ततश्च स्वपरप्रशंसानिन्देऽनुचिते। अथाभ्यासादिविरहे सर्वाण्यपि शास्त्राणि स्वपरपुरातननवीनानि समानानि, अज्ञातत्वेन निर्विशेषत्वात् । अतो नैतस्मिन् दशाविशेषे कस्यचिन्निषेवणमितरावज्ञा वा युज्यते, अब वादिओं की विषमता को प्रगट करते हुए कहते है - जो अग्नि से हो सके, वह पानी से नही होता है, प्रयोग करने योग्य में मन से ही क्याँ (हो सकता है?) समानों में अराग (उचित है) तो विशेष से क्यों ? वादीओं में सम्यक्वृत्ति का विचार करें।।१२।। जो कार्य अग्नि से ही सिद्ध हो सकता है वो पानी से नहीं हो सकता, उसी तरह जो चीज़ प्रयोग करने योग्य है, उसमें केवल मन से कार्यसिद्धि नही हो सकती, उसका तो प्रयोग ही फलदायी बन सकता है। दिवाकरजी कहना चाहते है कि पुरातनप्रेमीओं को अन्यदर्शनों का अभ्यास या उनकी परीक्षा नहीं करनी, उनके शास्त्रों के दर्शन तक नहीं करने, और उनकी निंदा करनी है और विरोध उठाना है। अपने शास्त्रों की भी परीक्षा नहीं करनी है, उन पर विचार नही करना है, और यहा तक के अज्ञात होते हुए भी उनकी दिल से प्रशंसा करनी है। अब देखो कमाल, जब किसी का अभ्यास ही नहीं किया तब तो उनके लिये अपने - पराये सभी शास्त्र एक समान ही हो गये। अनजानों में भला कौनसा भेद ? वहाँ तो कौन अपना और कौन पराया ? तब तो सभी में अराग ही होना चाहिए था। महानिशीथसूत्र
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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