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________________ ®- तत्त्वोपनिषद् परब्रह्मसिद्धान्ततया प्रसिद्धिश्च। सोऽयं विडम्बनावधिः। ततस्तत्परीक्षणमपि नास्तिक्यापयशोनिबन्धनम्। किं नात्र पुरैव सुरकृतविशीर्णतेत्याचार्यहृदयम् ।।१।। अथ किं नात्र विचारितरमणीयतेत्यारेकायामाह - पुरातनैर्या नियता व्यवस्थिति स्तत्रैव सा किं परिचिन्त्य सेत्स्यति। तथेति वक्तुं मृतरूढगौरवा दहं न जातः प्रथयन्तु विद्विषः।।२।। (वंशस्थम्) की नही । मुग्ध जनों का यही स्वभाव होता है कि जो वस्तु विचार न करने पर ही सुंदर लगे वो वस्तु उन्हें प्रिय होती है। अतः उनका मत विस्तृत होता गया। लोग उन खयालों को परमात्मवाक्यरूप सिद्धान्त समज ने लगे। उस पर विचार करने की इच्छा भी एक अपराध बन गइ। उसके परीक्षक को नास्तिक कहकर बदनाम किया गया। और तब विडम्बना की चरमसीमा आ चूकी कि जब उस अशिक्षितपंडितजन के खयाल परमतत्त्व और मोक्षमार्ग बन गये। ___ ऐसा क्यूँ न हुआ कि उसके खयाल पेश होने से पहले ही तूटफूट के विनष्ट न हो गये? यद्यपि दुनिया में उनके लिये कानून नही है, मगर देवताए तो है ना ? क्यूँ उन्होंने अपने प्रभाव से उनके खयालों को वही समाप्त न कर दिए ? ऐसे भयंकर परिणाम का देवताओं ने पहले से ही प्रतिकार क्यूँ नहीं किया ? यही प्रश्न दिवाकरजी के दयालु दिल को पीडित कर रहा है ।।१।।। अशिक्षित पंडित जन का अभिप्राय विचार करने पर क्यों नहीं टिकता ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए दिवाकरजी कहते है पुरातनों ने जो व्यवस्था निश्चित की है, वो क्या वहीं विचार कर के सिद्ध होगी ? मृत पुरुष के रूढ हए गौरव से 'जी हा' करने के लिये १. क- स्तवैव। ख- स्तथैव। २. क- सेत्स्यसि।
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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